पक्षियों की अलग ही दुनिया है. कभी सोचती थी कि पक्षी स्वतंत्र हैं, वे हमारी तरह समाज व कानून की जंजीरों से जकड़े हुए नहीं हैं. पर, नजदीक जा कर मामूल हुआ कि उन का भी अपना समाज है, अपनी निराली दुनिया व अनुभूतियां हैं. एक वर्ष बीत गया, पर वह जोड़ा मैं अभी तक नहीं भूल सकी.

मुझे काफी दिनों से मकान की तलाश थी, क्योंकि जिस मकान में हम रह रहे थे, वह मकान कम, दड़बा अधिक जान पड़ता था. खैर, तलाश पूरी हुई. मेरे पतिदेव ने काफी अच्छा फ्लैट तलाश कर लिया. ग्राउंड फ्लोर पर दो कमरे का यह फ्लैट पा कर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई. दिल्ली जैसे शहर में खुला, हवादार व सस्ता मकान सौभाग्य से ही मिलता है.

कुछ दिन यों ही सामान सेट करने में व्यतीत हो गए. लेकिन जब जरा व्यस्तता से फुरसत मिली तो यह देख कर सुकून हुआ कि सामने के पेड़ की एक बड़ी सी टहनी हमारी खिड़की के शीशे को छू रही है. खिड़की कम ही खोली जाती थी, क्योंकि दिल्ली की पौल्यूटेड एयर में एयर कंडीशनर ही चलाना पड़ता है.

एक दिन मैं बाजार जाने के लिए जैसे ही बाहर निकली, ऊपर की पड़ोसनें आपस में बतिया रही थीं. उन्होंने मुझे देखा नहीं था, पर चलतेचलते कुछ शब्द कानों में पड़ ही गए, “अरे, इस में फिर कोई आ गया…”

यह बात हमारे बारे में ही थी, इस में कोई शक नहीं था. मैं सोचने लगी, ‘आखिर इस में लोग ठहरते क्यों नहीं?’

मुझे तो अभी तक कोई दोष नजर नहीं आया. क्या चोरी होती है यहां या फिर किसी भूतप्रेत का चक्कर है? क्योंकि मैं भूतों में विश्वास नहीं रखती, सो मेरे दिमाग से यह विचार शीघ्र ही निकल गया.

दूसरे ही दिन निमंत्रित किए मेहमान की तरह एक जोड़ी मेरी खिड़की के पीछे ठकठक करने लगी. शीशे से भी गुटरगूंगुटरगूं का शोर आने तक एक कबूतरकबूतरी को पेड़ की डाल पर देख मैं ने माथा सिकोड़ लिया. मैं बारबार बाहर जा कर उन्हें उड़ाती, वह फिर हठी बालक से वहीं जम जाते. मुझे लगा कि वे ड्राइव को रोज गंदा करेंगे.
एकाएक मुझे याद आया और मैं ने कहा, “अच्छा बच्चू, अब देखती हूं कि कैसे आते हो?”

मैं ने एक लंबा सा डंडा उठाया और डरा कर टहनी से ही डंडा सटा दिया और फिर इत्मीनान से रसोई का काम निबटाने लगी.

रसोई का काम समाप्त कर सोचा, लेट ही लूं. सचमुच बच्चों के बिना घर कैसा सूना लगता है. काश, मेरे पास कोई नन्हामुन्ना होता.

मैं अपने ही विचारों में डूबनेउतरने लगी.

अभी पलकें बोझिल हो कर मुंदने ही वाली थी कि गुटरगूं की आवाज सुन कर चौक पड़ी. वह जोड़ी फिर उस डाल पर आ गई थी. वहां ऊपर दृष्टि गई तो देखती ही रह गई. शायद शीशे के पीछे उन्हें मेरे वहां होने का अहसास न था.

सलेटी रंग पर काली धारियां लिए वह जोड़ी बहुत ही खूबसूरत लग रही थी. वे जब अपनी चमकीली गरदन मटकाते, उन की भूरी आंखें गजब का आकर्षण पैदा कर देतीं. उसी दिन मुझे विश्वास हुआ कि पक्षियों में सौंदर्य भरपूर होता है.
कबूतर कबूतरी की गरदन पर चोंच मारता और कबूतरी आंख मूंद कर कभी गरदन को इधर और कभी दूसरी ओर फेर लेती. फिर थोड़ी देर बाद कबूतर ने उस के अंगों पर चोंच से गुदगुदी करनी आरंभ की.

अब कबूतरी ने आंखें झपका कर खोल दीं और एकदो बार इधरउधर देखा, बिलकुल उस कामिनी की तरह जो प्रेमी को प्रेम का प्रतिदान देने से पूर्व निश्चित हो जाती है. और फिर वही क्रिया दोहराई कबूतरी ने, कबूतर और कबूतरी पीछे सरकते चले गए और थोड़ी देर बाद सुनाई पड़ने लगा पंखों के फड़फड़ाने का स्वर.

सांझ घिर आई थी. मैं ने जैसे ही परदे डाले, कबूतरकबूतरी उड़ चले बादलों की ओर.

जब पतिदेव पधारे तो सब से पहली बात मैं ने यही बताई, “सुनिए, आज कबूतरों ने नाक में दम कर दिया. सारे ड्राइव पर बीट कर दी. बारबार धोना पड़ा.”

*कबूतरों ने या कबूतरकबूतरी ने. अरे, मनाने दो उन्हें भी हनीमून,” हंस कर वह बोले.

और बात आईगई हो गई.
लेकिन अगले 4 दिनों में मैं परेशान हो गई. कभी देखती, बाहर रखी कुरसी पर बीट पड़ी है, तो कभी गाड़ी पर. उन्होंने चित्रकारी कर दी है, तो अपना काम छोड़छोड़ कर उन्हें भगाती. पर, वे कहां मानने वाले थे.
पहले कुछ दिनों वे शी… शी का स्वर सुन कर भाग भी जाते, लेकिन कुछ दिनों पश्चात वे डरते ही न थे. मैं कई तरह से डरातीधमकाती. वे बड़े मजे से चहलकदमी करते रहते. शायद वे जान गए थे कि मुझ से उन्हें कोई खतरा नहीं है. मुझे बहुत क्रोध आता, पर यह रहा कितने दिन. खिड़की खोल कर भी हटाना चाहा, पर वे माने नहीं. अब डाल काटना तो मेरे बस का था नहीं.

मैं धीरे से परदा हटा कर देखती तो उन का प्रणय दृश्य देख शरमा जाती. दोनों चोंच से चोंच मिलाए मस्त. कभी देखती कबूतर धीरे से पुकारता ‘गुटरगूं’ तो वह उड़ कर उस के पास जा बैठती.

कबूतर मैं ने देखा न हो, ऐसी बात नहीं है. बहुत जगह मैं उस ‘गुटरगूं’ के स्वर से ऊबी हूं, पर उस प्यार की टेर में जो मिठास है, आनंद है, वह वर्णित नहीं किया जा सकता.

उन्हीं दिनों मेरी तबीयत कुछ खराब रहने लगी और जब हम को मालूम हुआ कि मैं मां बनने वाली हूं तो हम दोनों जैसे झूम उठे. सचमुच अच्छी खुशी के सम्मुख मैं उस जोड़े को कई दिनों तक भूले रही.

इतवार का दिन था. यह रसोई में आए और बोले, “देखो, इंदू, तुम्हें एक चीज दिखाऊं.”

“क्या दिखाएंगे, यहीं बता दो न.”

“नहीं, यहां नहीं,” वह बोले और लगभग खींचते हुए बेडरूम में ले गए.

“शी…” इन्होंने उंगली से चुप रहने का इशारा किया और धीरे से कान में बोले, “बाहर डाल पर देखना.”

मैं ने देखा तो शरमा गई, “बड़े बेशर्म हैं आप.”

“अच्छा.”

“कितना प्यार है इन में. शिक्षा लेनी चाहिए इन से,” ऐसा कह कर मैं वहां से भाग आई.

कबूतर डरते तो हैं नहीं, फिर इन के पीछे क्यों समय नष्ट किया जाए, यह सोच कर मैं बेफिक्र सी हो गई. बारबार उठने में आलस्य सा आने लगा. अब जो थोड़ीबहुत झिझक थी, वह भी दूर हो गई. वे बड़े मजे से मेरे गेट के आसपास भी पांव के पास घूमते और शोर ऐसे मचाते जैसे पालतू हों.

कबूतरों को शांतिप्रिय पक्षी कहा जाता है, पर ऐसा नहीं है. जब यह एक जगह कब्जा कर लेते हैं, तो दूसरे को वहां झांकने भी नहीं देते. और यदि कोई दूसरा जोड़ा ऐसा दुस्साहस करता भी है, तो इन में जम कर लड़ाई होती है.

एक बार जब खिड़की खुली थी तो देखा कि एक दूसरा जोड़ा डाल पर आ गया तो उस जोड़े ने उस की ऐसी दुर्गत बनाई कि पूछो मत.

और एक दिन क्या देखती हूं कि साफ किए छोटे से बाग में छोटीछोटी डंडियां बिखरी पड़ी हैं. कुछ समझ में नहीं आया. हार कर… फेंक दीं.

देखते ही देखते कबूतर और कबूतरी ने 8-10 फेरे लगाए. वे हर बार सूखी सी डंडियां लाते और ऊपर रख कर चले जाते. मैं सोचने लगी कि आखिर क्या करेंगे यह इन का.

शाम को जब मैं ने उन्हें बताया, तो उन्हें मेरी भावभंगिमा पर हंसी आ गई. मुझे बहुत खीज हुई, “हूं, मरदों को बस हंसना आता है. नहीं बताते, न सही.”

यह तौलिया उठा कर बाथरूम में चले गए. थोड़ी देर में जब मुंहहाथ धो कर लौटे, तो बोले, “बता दूं.”

“बताना है तो बता दीजिए, नहीं तो रहने दीजिए,” मैं ने भी ऐसे कहा, जैसे मुझे दिलचस्पी न हो.

“तो खिलाओ लड्डू, तुम मौसी बनने वाली हो.”

“क्या कहा…?”

“कबूतरी तुम्हारी बहन, तो तुम मौसी नहीं बनोगी उस के बच्चों की.”

“ठेंगे से,” मैं ने अंगूठा दिखा दिया. नारी को नारी जाति से हमदर्दी हो जाती है, खासकर ऐसी स्थिति में. मैं ने उन पर कोई रुकावट नहीं डाली.

और एक दिन साहब ने फरमाया, “दो बच्चों की मौसी बन गई हो, मुबारक हो.”

“अंडे कहो न, अभी बच्चे कहां से आए. सुनो, मैं भी देख लूं.”

मैं ने खिड़की से परदा हटा कर देखा.

“अरे, क्या बचपना करती हो? ऐसी हालत में खिड़की न खोल देना,” यह बोल उठे.
मैं मन मसोस कर रह गई.

अब कबूतरी रातदिन अंडों को सेती और कबूतर दाना ले कर आता. कितनी तन्मयता थी उन में, यह देख कर ही मालूम होता है. दोनों रातदिन जुटे रहते.

मैं स्वयं कल्पना में खो गई. मैं भी मां बनूंगी. कैसा होगा वह. फिर मैं भी उसे सीने से लगा कर रखूंगी.

कभी सोचती, जब अंडों से बच्चे निकल आएंगे, तब दोनों उसे दाना खिलाएंगे, उड़ना सिखाएंगे और फिर वे भी अपने मांबाप की तरह गुटरगूं का शोर करेंगे.

रातरात भर कबूतरी अंडों को सेती और अपनी चोंच से उन डंडियों को तोड़तोड़ कर गोलाई में रखती, ताकि वे उस घेरे से निकल कर नीचे न गिर जाएं. और वह दिन भी आया, जब अंडों से दो बच्चे निकले, एक नर, एक मादा.

एक बार हम दोनों ने घर भर की सफाई की. पति पेड़ पर चढ़ कर कुछ फालतू डंडिया जो नीचे लटक रही थीं, तोड़ने लगे. मैं ने चिल्ला कर कहा, “देखो, बच्चों को तंग मत करना.”

“बहुत खयाल है मौसी को.”

“हां है. अब बताओ, कैसे हैं दोनों?” मैं अपनी जिज्ञासा को न दबा पाई.

“अरे बाबा, यहां तो बड़ी बदबू है,” पति बोले और फिर एक स्वर सुनाई दिया, “बहुुत शरारती है तू, मेरे घर में मुझे ही आंखें दिखाता है.”

“सुनो, नीचे आ जाओ. कबूतरी आ गई तो समझेगी कि इन्हें उड़ा रहे हैं, कहीं वह चोंच मार दे.” और ये तुरंत नीचे उतर आए.

इस के आगे की घटना दुखद है. मौत कितनी भयावह है, कितने रूप हैं इस के. जीवन का कठोर सत्य है यह. मैं रसोई में थी. इन की आवाज आई, “देखो, क्या हो गया?”

मैं ने देखा तो चीख निकल गई. बाहर के बरामदे में एक बच्चे को बिल्ली मुंह में उठाए सामने से गुजर गई और दूसरा नीचे मरा पड़ा था.

कबूतरी ने करुण स्वर में पुकारा, ‘गुटरगूं.’

मेरे आंसू पलकों पर जम गए. मुझे लगा, कबूतरी की आंखें नम हैं. वह उड़ गई. और थोड़ी देर बाद दोनों कबूतरकबूतरी भयभीत दृष्टि से चारों ओर देख रहे थे. दो दिन वे शायद भ्रम मिटाने के लिए आते रहे और फिर चले गए नियति के मारे.

उन दिनों मेरा जी बहुत खराब रहा. लगा, जैसे किसी निकट परिचित की मौत हो गई हो.

इस के बाद हम दोनों ने निश्चय कर लिया कि अब किसी पक्षी को अपने पेड़ पर आश्रय न लेने देंगे. भला कौन इन की रक्षा कर सकता है. मेरी कल्पनाएं बिखर गईं. मैं सहम गई. अपने होने वाले बच्चे की सुखद अनुभूतियों के बीच एक भय समा गया. ओह, काल के आगे किस की क्या बिसात. इन सब का यही परिणाम हुआ कि मैं चिड़ियों को भी उड़ाती रहती. मैं उन्हें न रहने देती और सारे दिन बाहर ‘शी… शी’ का स्वर गूंजा करता. ऊपर वाली पड़ोसनें मुझे देख कर मंदमंद मुसकराती.

एक दिन सोचा कि गीले कपड़ों को पंखे की हवा में बाहर वाले बरामदे में सुखा लूं. फुलस्पीड पर पंखा चला कर मैं बाल सुलझाने लगी. न जाने कब वही कबूतर टांड पर आ बैठा. हाथ में कंघी लिए जैसे ही मैं ने उसे देखा तो खीज उठी. और मुंह से निकला, ‘शी…शी.’

कबूतर घबरा कर जैसे ही उड़ा तो पंखे से टकरा कर पंख छितराए और नीचे जमीन पर छटपटाने लगा. मेरी चीख घुट कर रह गई. ओह, मेरे पांव में इतनी शक्ति भी नहीं रही कि दो कदम चल सकूं. सिर से पांव तक कंपकपी. कुछ क्षणों में मैं ने अपने पर काबू पाया और भाग कर पानी ले आई और जैसे ही मैं ने कबूतर के मुख में पानी की बूंदें टपकाई, वह खून के कतरे उगल कर शांत हो गया.

तभी कबूतरी डाल पर आ बैठी और चारों तरफ गरदन घुमाघुमा कर देखने लगी और नीचे जैसे ही उस ने अपने साथी को देखा, वही करुण स्वर उभरा- ‘गुटरगूं.’
प्रत्युत्तर न पा कर वह सहम गई.

उस की ऐसी दशा देख कर मेरे आंसू निकल पड़े. मन पुकार उठा, ‘यह ठीक है कि उस की मौत की जिम्मेदार मैं हूं, पर ये सब अनजाने में हुआ. तुम मुझे कोई बददुआ न देना. मैं तुम से माफी चाहती हूं.’ उस की दृष्टि को सहना मेरे बूते से बाहर था. मैं ने नजर झुकाई और वह उड़ गई.

मैं ने इन के सीने से लग कर कहा, “आज मुझे खाना खाने के लिए मजबूर न करो. मेरा मन बहुत खराब है.”

यह समझे कि मैं बुरी तरह भयभीत हो गई हूं. कई तरह से समझायाबुझाया, पर कोई सांत्वना मुझे उस घटना की चोट से उबार न सकी.

कबूतरी कई बार आती. डाल पर मैं खिड़की से देख फिर वह वैसे ही वापस हो जाती, शायद खोए हुए साथी के मिलने की आस बाकी थी.

मुझे उस पर दया आती. उस के लिए यह पेड़ कितना खराब रहा, जहां उसे अपने बच्चे, अपना पति खो देना पड़ा है.

मैं कई बार बाहर ड्राइव वे पर गेहूं के दाने रख देती. उन दोनों को दाने चुगते देख मुझे असीम संतुष्टि का आभास होता.

और एक दिन मैं मोबाइल पर मैसेज पढ़ रही थी. और कबूतरी डाल पर बैठी थी. मैं ने देखा, ऐसा लगा जैसे वह अतीत में खोई है, कितनी स्मृतियां सिमटी हैं इस घर में. काश, जो हो गया वह न होता तो वह किती सुखी और संतुष्ट होती. अचानक जैसे भूकंप आ गया. बिल्ली ने इतनी जोर से झपट्टा मारा था कि कबूतरी विरोध भी न कर सकी. बिल्ली विजय भाव आंखों से मुसकराती कबूतरी की गरदन दबाए भाग गई और मेरे मुंह से निकला, ‘उफ्फ, तेरी कहानी खत्म हो गई.’

लेकिन आज सोचती हूं, नहीं, कहानी खत्म नहीं हुई, वह आज भी ताजा है, मेरे दिलोदिमाग पर.

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