युवा ताकत को सत्ता के लालची भेडि़यों ने साजिशन ऐसे कुचक्रों में फंसा रखा है कि जिन से नेताओं को तो सत्ता का सुख हमेशा मिलता रहे मगर देश के युवाओं को स्थायी काम और पैसा कभी न मिले क्योंकि उसी का लौलीपौप दिखा कर ही सालोंसाल चुनाव जीतना है. भारत दुनिया में सब से ज्यादा युवा आबादी वाला देश है. युवाओं के मामले में चीन भी उस से पीछे है. संयुक्त राष्ट्र संघ के वैश्विक विकास कार्यक्रम यूएनडीपी के आंकड़ों के मुताबिक, दुनिया में 121 करोड़ युवा हैं, जिन में सब से ज्यादा 21 फीसदी भारतीय हैं. भारत अपने 15 से 30 साल की उम्र के लोगों को युवा मानता है जो भारत की आबादी का 27 फीसदी हिस्सा हैं.
मगर इतनी बड़ी युवा आबादी का अधिकांश हिस्सा अशिक्षित, बेरोजगार, भूख और गरीबी का शिकार है. वहीं, पैसे की तंगी और भूख इन युवाओं को अपराध की तरफ धकेल रही है. वैसे तो लोकतंत्र के बारे में कहा जाता है कि इस में सभी को समान अवसर मिलता है पर भारत में व्यावहारिक धरातल पर स्थिति बिलकुल विपरीत है. युवा ताकत को सत्ता के लालची भेडि़यों ने साजिशन ऐसे कुचक्रों में फंसा रखा है कि जिस से नेताओं को तो सत्ता का सुख हमेशा मिलता रहे मगर देश के युवाओं को स्थायी काम और पैसा कभी न मिल सके क्योंकि उसी का लौलीपौप दिखा कर ही एक के बाद एक चुनाव जीतना है. सियासत ने युवाओं को धर्म के आडंबरों में फंसा रखा है. धर्म के नाम पर युवाओं को उकसाया जाता है. उन्हें धर्म के नाम पर डराया जाता है. धर्म के नाम पर उन से धन उगाही होती है.
हर कदम पर धर्म के नाम पर उन की मेहनत की कमाई का बड़ा हिस्सा पंडे, मुल्ला, पादरी डकार जाते हैं. आज भारतीय युवा धर्म के ढोल बजा रहे हैं. वे धर्म की पताकाएं फहरा रहे हैं. धर्म के नाम पर वे उन्मादी जुलूस निकाल रहे हैं, नारेबाजी कर रहे हैं और मारकाट मचा रहे हैं. मोदी सरकार संघ के संविधान और एजेंडे से बाहर ?ांक देश के संविधान व असली विकास के मुद्दों पर फोकस ही नहीं करती. उस के पास युवाओं के विकास की न तो नीयत है, न कोई मौडल है और न कोई रोड मैप. युवाओं को शिक्षा और रोजगार देने की जगह उन्हें क्षेत्रवाद, जातिवाद, प्रांतवाद, भाषावाद, अलगाववाद, नक्सलवाद, आतंकवाद, संप्रदायवाद जैसी बातों में उल?ा कर राजनीतिज्ञ सिर्फ अपना उल्लू सीधा करते हैं. सरकार संसद में आंकड़े गिनवाती है कि देशभर में इतने स्कूलकालेज सरकार ने खोल दिए, मगर उन शिक्षा संस्थानों की असलियत क्या है?
स्कूल की चारदीवारी है तो बच्चों के बैठने के लिए बैंच-टेबल नहीं हैं, किताबें नहीं हैं. जहां किताबें हैं वहां टीचर नहीं हैं. जहां टीचर हैं उन की खुद की शिक्षा इतनी अधूरी है कि वे बच्चों को पढ़ाने के काबिल नहीं हैं. गांव, कसबों और पिछड़े इलाकों में शिक्षा के प्रति जागरूकता की इस कदर कमी है कि बच्चों को स्कूल तक लाने के लिए कहीं मिडडे मील का लालच देना पड़ता है, कहीं मुफ्त राशन बांटा जाता है, कहीं कपड़े और किताबें वितरित की जाती हैं तो कहीं ?ाले लगवाए जाते हैं कि किसी तरह बच्चे स्कूल तक आएं. बावजूद इस के, समाज में शिक्षा के प्रति जागरूकता के अभाव में गरीब बच्चे स्कूल नहीं आते. गरीब मांबाप अपने बच्चों को स्कूल भेजने के बजाय उन से मजदूरी करवाना बेहतर सम?ाते हैं, ताकि चार पैसे घर में आएं और परिवार का पेट पले.
शहरी सरकारी स्कूल के टीचर बच्चों को पढ़ाने के बजाय चुनावी ड्यूटी देने, सरकार के वैक्सीन प्रोग्राम को सफल बनाने, स्वच्छता अभियान चलाने जैसी सरकारी योजनाओं में ज्यादा लगे रहते हैं. देश की राजधानी दिल्ली में नगरनिगम के स्कूलों का यह हाल है कि गर्मी की छुट्टियां समाप्त होने पर नए एडमिशन के लिए अध्यापकों को स्लम और पिछड़े इलाकों में घरघर भेजा जाता है कि वे गरीब मांबाप को सम?ाएं कि वे अपने बच्चों को स्कूल में दाखिल करवाएं. वे उन्हें मिडडे मील का लालच देते हैं, मुफ्त राशन का लालच देते हैं, कपड़ोंकिताबों का लालच देते हैं. फिर भी अधिकांश लोग अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजना चाहते हैं.
वे कहते हैं कि सरकारी स्कूल में पढ़ कर हमारा बच्चा कौन सा कलैक्टर बन जाएगा, आखिर करनी तो उसे मजदूरी ही है, सो अभी से कर ले वही ज्यादा अच्छा है. गौरतलब है कि सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश की 21.9 फीसदी आबादी आज भी गरीबीरेखा से नीचे है. खुद सरकार का कहना है कि गांवों में रहने वाला गरीब व्यक्ति हर दिन 26 रुपए और शहर में रहने वाला गरीब व्यक्ति 32 रुपए खर्च नहीं कर पा रहा है. ऐसे में वह अपने बच्चों को पढ़ने भेजे या परिवार का पेट पालने के लिए उस से काम करवाए, यह गंभीर प्रश्न है. ऐसे गरीबों के बच्चे जो शिक्षित नहीं हो पाते हैं वे जीवनभर कम पैसों की मजदूरी ही करते रहते हैं और ठेकेदारों के हाथों शोषित होते हैं. वे नशे की लत का शिकार भी हो जाते हैं और इसी तबके के लोग ही ज्यादातर आपराधिक गतिविधियों में भी लिप्त होते हैं.
ये युवा देश को फायदा देने से अधिक नुकसान पहुंचाते हैं. उच्चवर्ग के लोगों, जिन के पास खूब दौलत है, के बच्चे बड़ेबड़े प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते हैं. यह तबका अपने बच्चों की पढ़ाई और प्राइवेट ट्यूशन पर खूब पैसा खर्च करता है लेकिन उन की पढ़ाई का लक्ष्य विदेशी नौकरियों में जाना और बाद में वहीं सैटल होना होता है. अब तो मध्यवर्ग भी लोन ले कर अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलकालेज में इसी उद्देश्य से पढ़ाने लगा है कि उस के बच्चों के लिए विदेश जाने का रास्ता तैयार हो जाए. ऐसे में विदेश में काम करने और रहने का लक्ष्य ले कर भारतीय संसाधनों का इस्तेमाल कर पढ़ने वाले बच्चों की ऊर्जा, कौशल, ज्ञान और संचित धन का कोई फायदा देश को नहीं होता है. रह जाता है बीच का तबका, जो अपने बच्चों को इसलिए पढ़ाता है ताकि वह किसी सरकारी नौकरी में आ जाए जहां उसे ज्यादा काम न करना पड़े मगर तनख्वाह के साथ कुछ ऊपरी आमदनी भी हो जाए. इस तबके के युवाओं के सपने उन की मूलभूत आवश्यकताओं तक ही सीमित होते हैं. जैसे, एक लिपिक की नौकरी मिल जाए और रोजीरोटी का जुगाड़ हो जाए बाकी थोड़ीबहुत ऊपरी कमाई हो जाए तो सोने पर सुहागा.
यह वर्ग काफी बड़ा है. यह वर्ग दब्बू किस्म का भी है. यह सरकार से भी डरता है और भगवान से भी डरता है. अंधविश्वासों में ग्रस्त यह वर्ग सुबह से शाम तक धार्मिक क्रियाकलापों में लिप्त रहता है. इस वर्ग वालों की सुबह ईशवंदना से शुरू होती है. यह वर्ग लोग ब्राह्मण को अपनी कमाई का एक हिस्सा दान कर पुण्य कमाने का इच्छुक होता है. पंडित-मौलवी के कहने पर ये व्रत-रोजा भी करते हैं और दान-जकात में पैसा बरबाद करते हैं. यही वह वर्ग है जो बड़ी संख्या में तीर्थयात्राएं करता है और यही वर्ग भ्रष्टाचार में भी लिप्त होता है. छोटेछोटे फायदे के लिए यह किसी के भी हाथ बिक जाता है. सियासत इस वर्ग का बखूबी फायदा उठाती है. देश में धार्मिक उन्माद पैदा करना हो, राजनीतिक रैलियों में भीड़ जुटानी हो, तालीथाली बजवानी हो, जुलूस निकलवाने हों तो इस वर्ग के युवाओं को ही इस्तेमाल किया जाता है. इस बीच के वर्ग के युवाओं को महीनेभर की जिंदगी आराम से काटनेभर पैसे का जुगाड़ हो जाए, उस से आगे की सोचने की जरूरत महसूस नहीं होती है. इस वर्ग के युवा 10-15 हजार रुपए महीना कमाने के साथ दिनभर ‘शोना बेबी’ और ‘शोना बाबू’ करने में व्यस्त हैं. वीकैंड में शराब और जुआ पार्टी कर लेते हैं.
कोई रातरातभर पोर्न देखने में व्यस्त है, कोई इंस्टाग्राम और फेसबुक पर सैल्फी पोस्ट करने या अपने धर्म के नेता का महिमामंडन व उस का प्रचार करने में व्यस्त है. कोई ब्रेकअप के बाद 4 घूंट शराब का सहारा लेता दिखता है तो कोई टिकटौक और वीडियो गेम खेल कर समय बरबाद करता नजर आता है. कोई घंटों तक नैटफ्लिक्स पर आने वाले शो और फिल्मों में व्यस्त रहता है तो कोई सिर्फ दुनिया को दिखाने के लिए व्यस्त होने का ढोंग करने में व्यस्त है. उच्चवर्ग और मध्यवर्ग के लोगों में ही कुछ वे युवा हैं जो सरकारी नौकरियों में उच्च पद पर भी आसीन होते हैं मगर यह संख्या देश की युवा आबादी को देखते हुए बहुत मामूली सी है. डाक्टर, इंजीनियर, आईएएस, पीसीएस, वकील और जज बनने वाले युवा निसंदेह अपनी मेहनत के दम पर समाज में अपना नाम और दबदबा कायम करते हैं, मगर देश और समाज के लिए कुछ अच्छा करने की इन की नीयत, काबिलीयत और ऊर्जा पर सरकार हावी रहती है. इन्हें सरकार की इच्छानुसार काम करना पड़ता है.
शुरूशुरू में इन के उच्च आदर्शवादी विचार होते हैं मगर जल्दी ही इन्हें पता चल जाता है कि आदर्श सिर्फ बातों तक ही सीमित रखना है. धरातल पर वही चलेगा जो सरकार चाहेगी. चंद अपवादों को छोड़ दें तो अधिकांश कुछ साल के बाद ही ये सरकार को कमा कर देने लगते हैं और खुद की जेबें भी भरते हैं. देश में भ्रष्टाचार की जड़ें मजबूत करने में ब्यूरोक्रेसी के रोल से दुनिया वाकिफ है. जनकल्याण की तमाम योजनाएं इन की फाइलों में ही बंद रहती हैं. निचले तबके तक न तो ये शिक्षा का सही संदेश पहुंचा पाते हैं, न शिक्षा की समुचित व्यवस्था कर पाते हैं, न युवाओं के लिए कोई ठोस कार्य योजना बनाते हैं और न ही युवाओं को सचमुच रोजगार से जोड़ने का प्रयत्न करते हैं. वे उतना ही करते हैं, जितना सत्ता उन से करने को कहती है और सत्ता अपना नफानुकसान देख कर इन से काम लेती है. अपने नागरिकों को बस उतना ही देती है जितने में वे बंध जाएं और अगले चुनाव में फिर जीत दिलवाएं. सांस लेते रहें, मर न जाएं. सपना देखें पर पूरा न कर पाएं. आज जो युवा हिंदी मीडियम से भी ग्रेजुएट हो गया वह परिवार में पीढि़यों से चले आ रहे किसी हाथ के हुनर वाले काम से नहीं जुड़ना चाहता है.
वह अपने पैतृक पेशे को अपनाने से कतराता है. उसे कुरसीटेबल वाली नौकरी ही भाती है मगर सरकार के पास इतनी नौकरियां कहां हैं? फिर सरकार बेरोजगारी भत्ता बांट कर उन की आवाज दबा देती है. फ्री राशन दे कर उन्हें आलसी और मुफ्तखोर बना देती है. मुफ्तखोरी की व्यवस्था राष्ट्रहित में नहीं है. यह देश की युवाशक्ति को पंगु बना देती है. व्यावहारिक नजरिए से यदि देखा जाए तो देश के अधिकांश घरों में यदि महीने का खर्च हजारदोहजार बढ़ जाए तो परिवार वालों को यह सोचना पड़ता है कि इस बढ़े हुए खर्च की भरपाई कैसे की जाए? कमोबेश सरकारें भी ऐसे ही चलती हैं. मुफ्त में कुछ देने के एवज में यदि खर्च बढ़ेगा तो उस की भरपाई कैसे होगी, इसे एक बहुत बड़ी समस्या के रूप में देखा जाना चाहिए. सिर्फ चुनावी वादे कर के जनता में लोकप्रिय होना आसान है पर उस के बाद क्या होगा, यही सब से विचारणीय प्रश्न है. देश में लोगों को स्थायी रूप से रोजगार मिले, लोगों को क्षणिक लाभ के बजाय स्थायी रूप से लाभ मिले, जिस से देश का भी भला हो. ऐसे उपक्रम अपनाने के बजाय सरकार रेवडि़यां बांट कर युवाओं को खुद से जोड़े रखने की साजिश करती है और फिर इसी युवा ताकत को चुनावी वक्त में अपने हित में भुनाती है. यह देश के लिए खतरनाक है.