विवाह, उत्तराधिकार और विवाह विच्छेद यानी तलाक के मसलों को हल करने के लिए यूनिफौर्म सिविल कोड को बनाने का शिगूफा लंबे समय से छोड़ा जा रहा है, जबकि इन मसलों को हल करने के लिए स्पैशल मैरिज एक्ट यानी विशेष विवाह कानून देश में 1954 से लागू है. ऐसे में यूनिफौर्म सिविल कोड की बात करना बेमानी है. जरूरत यह है कि स्पैशल मैरिज एक्ट को ही माना जाए और बाकी विवाह कानूनों की मान्यता खत्म कर दी जाए.

इस के बाद यूनिफौर्म सिविल कोड जैसे किसी कानून की जरूरत नहीं रहेगी. हाल के कुछ सालों में देश में जिस तरह से बिना किसी तैयारी के कानून बनाए और लागू किए जा रहे हैं उस से साफ यह लगता है कि यूनिफौर्म सिविल कोड यानी यूसीसी में भी कोई नया रास्ता नहीं होगा. मिसाल के तौर पर, कश्मीर में अनुच्छेद 370, कृषि कानून, सीएए यानी सिटिजन अमैंडमैंट एक्ट और एनआरसी यानी नैशनल रजिस्टर फौर सिटिजन को ले कर जिस तरह सरकार ने किया उस से स्पष्ट होता है कि यूनिफौर्म सिविल कोड यानी यूसीसी में न कुछ यूनिफौर्म होगा, न सिविल होगा, न कोड होगा बल्कि यह ढाक के तीन पात ही होगा. अगर यूनिफौर्म सिविल कोड बनता है तो उस में नया कुछ नहीं होगा. उस में सभी जातियों और धर्मों के विवाह कानून को जारी रखते हुए 2 बदलाव होंगे.

पहला, शादी के समय पहली पत्नी या पति या तो जिंदा न हो या दोनों के बीच कानूनन अलगाव हो चुका हो. दूसरा, तलाक या संबंध विच्छेद के बारे में यह कहा जाएगा कि इस का फैसला सिविल कोर्ट करेगी. जीएसटी को ले कर सरकार ने यही किया है. एक देश एक कानून के नाम पर जीएसटी कानून बना जिस में 10 तरह के अलगअलग नियम बना दिए गए. असल बात यह है कि स्पैशल मैरिज एक्ट में विवाह के लिए धार्मिक पक्ष को मान्यता नहीं दी गई है. इस की वजह से यूसीसी के जरिए इस कानून को निष्प्रभावी बनाने का प्रयास किया जा रहा है. यूनिफौर्म सिविल कोड यूसीसी में विवाह के धार्मिक पक्ष को बचाने का काम होगा, सो, वह लौलीपौप बन कर रह जाएगा, यूनिफौर्म नहीं रहेगा.

जैसे, जीएसटी एक ही दर का एक टैक्स नहीं है. ऐसे में जरूरी यह है कि स्पैशल मैरिज एक्ट ही सब से उपयोगी होगा जिस में सभी जातियों और धर्मों के लिए एक सा नियमकानून होगा. यूसीसी को ले कर जिस तरह की कवायद उत्तराखंड की सरकार कर रही है उसे देख कर इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि यूसीसी के नाम पर सरकार क्या करने वाली है? 27 मार्च, 2022 को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने सुप्रीम कोर्ट की पूर्व न्यायाधीश रंजना प्रकाश देसाई की अध्यक्षता में समान नागरिक संहिता यानी यूसीसी बनाने के लिए 5 सदस्यीय समिति का गठन किया था.

समिति ने 6 माह के लंबे समय, चुनाव के कुछ समय पहले ही, के बाद यूसीसी पर रायशुमारी के लिए 8 सितंबर को वैबसाइट लौंच की. इस में लोगों से डाक और ईमेल के माध्यम से भी सु?ाव मांगे गए. इस समिति को लिखित रूप से मिले सु?ावों की संख्या भाजपा प्रचारतंत्र द्वारा लगभग साढ़े तीन लाख से ज्यादा बताई गई और दावा किया गया कि डाक, ईमेल और औनलाइन सु?ावों को मिला कर यह संख्या साढ़े चार लाख से ज्यादा है. लेकिन इन सु?ावों में क्या है, यह नहीं बताया गया. उस की अधिकृत साइट पर जो नंबर है वह 60,810 है. मुख्यमंत्री धामी ने समिति से 6 महीने में रिपोर्ट सौंपने के लिए कहा था. 6 माह में रिपोर्ट के नाम पर समिति केवल रायशुमारी के लिए वैबसाइट लौंच कर पाई. तय समय में यह समिति सरकार को रिपोर्ट नहीं दे पाई है.

इस में समिति से अधिक सरकार की गलती है. सरकार को यह समिति उत्तराखंड हाईकोर्ट के जस्टिस की अध्यक्षता में गठित करनी चाहिए थी. वह उत्तराखंड की जरूरतों को आसानी से सम?ा सकता और समिति का काम जल्द हो जाता. उत्तराखंड जैसे छोटे राज्य जब यूसीसी समय पर नहीं बना पाए तो पूरे देश में इस का क्या हाल होगा, आसानी से सम?ा जा सकता है. इस समिति ने भी सु?ाव लेने के लिए बड़े कठिन नियम बना डाले. सु?ाव देने से पहले ही सु?ाव देने वाले को अपना पूरा कच्चा चिट्ठा देना था. खुद का नाम, मातापिता का नाम, ईमेल आईडी, पता, पते के प्रूफ की आईडी की कौपी, मोबाइल नंबर मांगा गया था और फिर ओटीपी भेज कर पुष्टि की गई.

कौन बेवकूफ इस सारी जहमत को इसलिए उठाएगा कि कोई दूसरा कैसे, कितनी शादियां करे. सु?ाव विवाह, तलाक, संपत्ति अधिकारों, विरासत, गोद लेनेदेने की प्रक्रिया और संरक्षण के अधिकारों के बारे में पूछे गए और हिंदुओं और मुसलिमों दोनों के कानूनों के बारे में सु?ाव मांगे गए. मजेदार बात यह है कि सु?ाव देने वाले का कच्चा चिट्ठा तो देसाई कमेटी ने मांगा पर देने वाले की धार्मिक संस्था का कच्चा चिट्ठा तक नहीं मांगा जबकि आग्रह सूचना में कहा गया है धार्मिक संस्था व राजनीति दल सु?ाव दें. धार्मिक संस्थाएं व राजनीतिक दल कल क्या करते हैं, यह कमेटी की पूछने की हिम्मत नहीं हुई क्योंकि यह कमेटी राजनीतिक हल्ला मचाने के लिए गठित की गई थी, किसी नतीजे पर पहुंचने के लिए नहीं. उत्तराखंड ही नहीं, भाजपाशासित कई और राज्यों के मुख्यमंत्री भी इस में बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं.

गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान भी यह बात जोरशोर से उठाई गई. यही नहीं, इस को ले कर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा, ‘‘सीएए, धारा 370 और ट्रिपल तलाक जैसे मुद्दों के फैसले हो गए हैं, अब कौमन सिविल कोड की बारी है.’’ धारा 370 के बाद कश्मीर वैसा का वैसा और तीन तलाक के खिलाफ चंद मामले ही देशभर में दर्ज हुए हैं, जिस से साबित होता है कि दोनों कदम केवल कट्टर हिंदुओं को भरमाने के लिए ही हैं और यूसीसी भी वैसा ही है. इस कड़ी में अगला नाम गुजरात के मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल का जुड़ गया. 29 अक्तूबर को मुख्यमंत्री ने कैबिनेट की बैठक में गुजरात में यूसीसी लागू करने के लिए एक समिति गठित करने का फैसला लिया. रिटायर्ड जस्टिस की अध्यक्षता में समिति गठित कर दी गई. वहीं, हिमाचल प्रदेश में भाजपा ने अपने घोषणापत्र में इस का वादा किया कि विधानसभा चुनाव में जीत मिलने पर हिमाचल प्रदेश में यूसीसी को लागू किया जाएगा. इस के लिए एक कमेटी बनाई जाएगी जिस की सिफारिशों के आधार पर यूसीसी लागू किया जाएगा.

भाजपा के राज वाले 3 राज्य उत्तराखंड, गुजरात और हिमाचल में यूसीसी की बात केवल फाइलों तक ही सीमित है. चुनाव और कुछ खास मौकों पर एक तरह से भाजपा यूनिफौर्म सिविल कोड को ले कर हवा बनाती रहती है. सचाई यह है कि यूसीसी को ले कर केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में जवाबी हलफनामा दिया था. इस में कहा गया कि केंद्र सरकार संसद में यूसीसी पर कोई कानून बनाने नहीं जा रही है. वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय की ओर से यह याचिका दाखिल की गई थी जिस में उत्तराधिकार, विरासत, गोद लेने, विवाह, तलाक, रखरखाव और गुजारा भत्ता को विनियमित करने वाले व्यक्तिगत कानूनों में एकरूपता की मांग की गई थी. केंद्र सरकार को चाहिए कि यूसीसी की जगह पर नई कवायद करने के बजाय स्पैशल विवाह अधिनियम 1954 को समान रूप से सभी नागरिकों के लिए अनिवार्य कर दे जिस से विवाह, जायदाद और उत्तराधिकार के मसले सुल?ाना आसान हो जाएगा. स्पैशल विवाह अधिनियम 1954 में वह सब है जो यूसीसी में जरूरत होगी और इस में पंडेपुजारी, मुल्ला, पादरी की जगह मजिस्ट्रेट ले लेते हैं.

यह धार्मिक गुर्गों को कतई स्वीकार न होगा. वास्तविकता में भाजपा क्यों नहीं लागू करना चाहती यूसीसी यूनिफौर्म सिविल कोड यानी यूसीसी लागू हो जाने से पूरे देश में शादी, तलाक, उत्तराधिकार और गोद लेने जैसे सभी सामाजिक मुद्दे धर्म और निजी कानून की जगह पर एकसमान कानून के हिसाब से तय होंगे. धर्म के आधार पर कोई अलग व्यवस्था नहीं होगी. इस का प्रभाव मुसलिम से कहीं अधिक हिंदुओं पर पड़ेगा. हिंदुओं में कुंडली मिलान से ले कर विवाह संपन्न कराने तक में ब्राह्मणों की व्यवस्था खत्म हो जाएगी. महिलाओं को समान अधिकार यानी बराबरी का दरजा मिल सकेगा. यही नहीं, हर तरह की समानता होने से जातीय विभेद कम होगा जिस से जाति और धर्म के नाम पर भाजपा की वोटबैंक की राजनीति असरदार नहीं रह जाएगी.

यही वे पेंच हैं जिन के कारण भाजपाई सरकार यूसीसी को ले कर कोई मसौदा नहीं बना पा रही है. वह यानी भाजपा केवल मुसलिम विरोध को हवा दे कर हिंदुओं को खुश रखने की कोशिश चुनावदरचुनाव करती है. यूसीसी भारतीय जनता पार्टी के मूल एजेंडे का प्रमुख हिस्सा है. भारतीय जनसंघ की स्थापना श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा 1951 में की गई थी. उस के 3 मुख्य उद्देश्य थे. उन में कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाना, अयोध्या में राममंदिर बनाना और देश में यूसीसी लागू करना. थोड़ी गहराई से देखा जाए तो यह एजेंडा भारतीय जनसंघ के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ का है. 1984 के लोकसभा चुनाव में जब भाजपा को केवल 2 सीटें मिलीं तो संघ ने भाजपा को अपने अनुसार चलने के लिए बाध्य कर दिया. संघ यानी आरएसएस को लग चुका था कि बिना हिंदुत्व के पार्टी का आगे बढ़ना संभव नहीं है. इस के बाद भाजपा को राममंदिर आंदोलन के लिए कमर कसनी पड़ी.

संघ को यह साफ लग रहा था कि बिना हिंदुत्व के भाजपा का जनाधार नहीं बढ़ेगा. राममंदिर की सीढि़यां चढ़ते हुए 5 साल के बाद भाजपा ने 1989 में लोकसभा चुनाव में वी पी सिंह को केंद्र में सरकार बनाने के लिए समर्थन दिया. केंद्र में सरकार का हिस्सा बनने के साथ ही साथ राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश राज्यों में भाजपा ने अपनी सरकार बना ली. हिंदुत्व के मुद्दे पर मिली ताकत ने ही 1996 और 1998 में भाजपा ने सहयोगी दलों की मदद से केंद्र में सरकार बनाई. अटल बिहारी वाजपेयी भाजपा की तरफ से देश के पहले प्रधानमंत्री बने. अटल सरकार सहयोगी दलों के साथ बनी थी, इस कारण वह आरएसएस के हिंदुत्व वाले एजेंडे को ले कर मुखर नहीं हो रही थी. आरएसएस का सारा दबाव यह था कि अटल सरकार अयोध्या में राममंदिर के लिए संसद में कानून बनाए. अटल बिहारी वाजपेयी जब इस के लिए तैयार नहीं हुए तो वहां से आरएसएस के मन में खटास आने लगी.

यही वजह थी कि 2004 के लोकसभा चुनाव में संघ और उस से जुड़े लोगों ने भाजपा को चुनाव जिताने में कोई मदद नहीं की. उस दौर के भाजपा के दोनों नेता अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी संघ की नजर में अपना महत्त्व खो बैठे थे. लिहाजा, 10 साल भाजपा सत्ता में वापसी नहीं कर पाई. 2009 के बाद भाजपा में नेताओं का पीढ़ी परिवर्तन शुरू हुआ. कट्टर हिंदू समर्थकों को पार्टी में महत्त्व दिया गया. भाजपा के तमाम मुलायम नेताओं को दरकिनार कर के कट्टर छवि रखने वाले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया. इस के बाद संघ ने चुनाव जीतने के लिए पूरी तरह से कमर कस ली. 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने बहुमत से सरकार बनाई. 2017 में उत्तर प्रदेश में भी कट्टर छवि वाले योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाया गया. संघ को इस बात की जल्दी थी कि उस के 3 प्रमुख मुद्दे पूरे हों. अयोध्या में राममंदिर बनाना, कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाना, साथ ही साथ राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर यानी एनआरसी और नागरिकता संशोधन विधेयक यानी सीएए पर काम करना यूसीसी बनाने की पहली सीढ़ी माना गया था पर जितनी आसानी से राममंदिर और अनुच्छेद 370 का मसला कानूनी दस्तावेजों में दिखा दिया गया यूसीसी को कानूनी बनाना उतना सरल नहीं. मसलन, यह भाजपा के लिए बैकफायर करेगा. इस कारण से यहां भाजपा फूंकफूंक कर अपने कदम रख रही है. भाजपा हर चुनाव के पहले इस की माला जपती है.

चुनाव खत्म होते ही भूलती है. प्रयोग के तौर पर उत्तराखंड और गुजरात में यह इस के मसौदे पर काम करते दिख रही है पर उस का यह काम पूरे बेमन से हो रहा है. चुनाव के बाद इसे बस्ते में डाल दिया जाएगा. विवाह बाजार और धर्म की दुकानदारी की रीढ़ है. सुप्रीम कोर्ट ने गेंद सरकार के पाले में डाली यूसीसी को ले कर कई जनहित याचिकाओं के याचिकाकर्त्ताओं ने विवाह, तलाक, भरणपोषण और गुजारा भत्ता (पूर्व पत्नी या पति को कानून द्वारा भुगतान किया जाने वाला धन) को विनियमित करने वाले व्यक्तिगत कानूनों में एकरूपता की मांग की थी. याचिकाओं में तलाक के कानूनों के संबंध में विसंगतियों को दूर करने और उन्हें सभी नागरिकों के लिए एकसमान बनाने तथा बच्चों को गोद लेने एवं संरक्षकता के लिए समान दिशानिर्देश देने की मांग की गई थी.

न्यायालय ने कहा कि वह इस मामले में केंद्र सरकार को कोई मार्गदर्शन नहीं दे सकता क्योंकि यह नीति का मामला है जिस का फैसला जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों को करना चाहिए. विधायिका को कानून पारित करने या वीटो करने की शक्ति है. विधि मंत्रालय ने विधि आयोग से सामान नागरिक संहिता से संबंधित विभिन्न मुद्दों की जांच करने और समुदायों को शासित करने वाले विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों की संवेदनशीलता, उन के गहन अध्ययन के आधार पर विचार करते हुए सिफारिशें करने का अनुरोध किया था. 21वें विधि आयोग ने अगस्त 2018 में परिवार कानून में सुधार शीर्षक से एक परामर्शपत्र जारी किया था लेकिन 21वें विधि आयोग का कार्यकाल अगस्त 2018 में ही समाप्त हो गया. यूसीसी पूरे देश के लिए एकसमान कानून के साथ ही सभी धार्मिक समुदायों के लिए विवाह, तलाक, विरासत, गोद लेने आदि कानूनों में भी एकरूपता प्रदान करने का प्रावधान करती है. संविधान के अनुच्छेद 44 में वर्णित है कि राज्य भारत के पूरे क्षेत्र में नागरिकों के लिए एकयूसीसी सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा.

अनुच्छेद 44 संविधान में वर्णित राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों में से एक है. अनुच्छेद 44 का उद्देश्य संविधान की प्रस्तावना में निहित धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य की अवधारणा को मजबूत करना है. संयुक्त परिवार की संपत्ति का सिस्टम खत्म यूसीसी से हिंदुओं का उत्तराधिकार कानून भी प्रभावित होगा. हिंदू विवाह और उत्तराधिकार कानून बदल जाएंगे. इस कानून के लागू होने के बाद से एक ही कानून से पूरे देश के रहने वालों को काम करना पड़ेगा. हिंदुओं पर अधिक प्रभाव यूसीसी को ले कर किसी भी सरकार ने कोई नियम नहीं बनाया है. आमतौर पर भाजपा के समर्थक हिंदुओं को यह लगता है कि यूसीसी से केवल मुसलमानों का नुकसान होगा. वे 4 शादियां और मनमानी तरह से तलाक नहीं ले पाएंगे. वे यह भूल जाते हैं कि यूसीसी लागू होने से सब से बड़ा नुकसान हिंदुओं और उन में भी खासकर ब्राह्मणों को होगा. इस की वजह यह है कि इस कानून के बाद हिंदू रीतिरिवाजों से होने वाली शादी का महत्त्व खत्म हो जाएगा. ब्राह्मणों को हिंदू रीतिरिवाजों से होने वाली शादियों में ही सब से अधिक कमाई करने का मौका मिलता है. स्पैशल मैरिज एक्ट में शादी ही नहीं, कुंडली और तमाम तरह के दोष दूर करने से होने वाला लाभ बंद हो जाएगा और शादियों में रोड़े अटकाने वाले दलाल मजिस्ट्रेटों के दफ्तरों के सामने मंडराते रहेंगे जो हिंदू जोड़ों से कहते हैं कि वे बिना गवाह शादी करा देंगे.

क्या है यूनिफौर्म सिविल कोड यूनीफौर्म सिविल कोड यानी की अवधारणा का विकास भारत में तब हुआ जब ब्रिटिश सरकार ने वर्ष 1835 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी, जिस में अपराधों, सुबूतों और अनुबंधों जैसे विभिन्न विषयों पर भारतीय कानून के संहिताकरण में एकरूपता लाने की आवश्यकता पर बल दिया गया. उस रिपोर्ट में हिंदू व मुसलमानों के व्यक्तिगत कानूनों को इस एकरूपता से बाहर रखने की सिफारिश की गई. ब्रिटिश शासन के अंत में व्यक्तिगत मुद्दों से निबटने वाले कानूनों की संख्या में वृद्धि ने सरकार को वर्ष 1941 में हिंदू कानून को बनाने लिए बी एन राव समिति का गठन किया. इन सिफारिशों के आधार पर हिंदुओं, बौद्धों, जैनों और सिखों के लिए वर्ष 1956 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के रूप में एक विधेयक को अपनाया गया. हालांकि मुसलिम, ईसाई और पारसी लोगों के लिए अलगअलग व्यक्तिगत कानून थे. कानून में समरूपता लाने के लिए विभिन्न न्यायालयों ने अकसर अपने निर्णयों में कहा है कि सरकार को एक यूसीसी सुनिश्चित करने की दिशा में प्रयास करना चाहिए. सामान नागरिक संहिता बनाने का अर्थ होगा कि कोई भी किसी भी धर्म वाले से खुलेआम शादी कर सकेगा.

1985 के शाह बानो प्रकरण और 1995 में सरला मुदगल मुकदमा चर्चा में रहा जोकि बहुविवाह के मामलों और उस से संबंधित कानूनों के बीच विवाद से जुड़ा हुआ था. यह तर्क दिया जाता है कि ट्रिपल तलाक और बहुविवाह प्रथा एक महिला के सम्मान तथा उस के गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं. वर्तमान में अधिकांश भारतीय कानून, सिविल व क्रिमिनल मामलों में एक यूसीसी का पालन करते हैं, जैसे भारतीय अनुबंध अधिनियम 1872, नागरिक प्रक्रिया संहिता, संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम 1882, भागीदारी अधिनियम 1932, साक्ष्य अधिनियम, 1872 इंडियन पीनल कोड, क्रिमिनल प्रोसीजर कोड आदि. राज्यों ने कई कानूनों में संशोधन किए हैं परंतु धर्मनिरपेक्षता संबंधी कानूनों में अभी भी विविधता है. गोवा भारत का एकमात्र ऐसा राज्य है जहां यूसीसी लागू है. यूसीसी का उद्देश्य महिलाओं और धार्मिक अल्पसंख्यकों सहित संवेदनशील वर्गों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना है. हर नागरिक पर लागू होगा यूनिफौर्म सिविल कोड यूसीसी विवाह, विरासत और उत्तराधिकार समेत विभिन्न मुद्दों से संबंधित जटिल कानूनों को सरल बनाएगी. परिणामस्वरूप, समान नागरिक कानून सभी नागरिकों पर लागू होंगे, चाहे वे किसी भी धर्म में विश्वास रखते हों. इस से भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को बल मिलेगा. इस से धार्मिक प्रथाओं के आधार पर अलगअलग नियमों के बजाय सभी नागरिकों के लिए एकसमान कानून बन जाएगा. यूसीसी के लागू होते ही वर्तमान में मौजूद सभी व्यक्तिगत कानून समाप्त हो जाएंगे, जिस से उन कानूनों में मौजूद लैंगिक पक्षपात की समस्या से भी निबटा जा सकेगा. पर, इस से पंडों, मौलवियों, पादरियों की दुकानें बंद हो जाएंगी क्योंकि यूसीसी में सारी शादियां या तो मजिस्ट्रेटों द्वारा की जाएंगी या केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा अधिकृत मैरिज अफसरों द्वारा. सभी धार्मिक शादियों को तो अवैध करना होगा. इस का प्रभाव विभिन्न समुदायों के रीतिरिवाजों पर पड़ेगा.

यह भी एक गलत धारणा है कि हिंदू एकसमान कानून द्वारा शासित होते हैं. उत्तर में निकट संबंधियों के बीच विवाह वर्जित है लेकिन दक्षिण में इसे शुभ माना जाता है. पर्सनल लौ में एकरूपता का अभाव मुसलमानों और ईसाइयों के लिए भी सही है. संविधान द्वारा नगालैंड, मेघालय और मिजोरम के स्थानीय रीतिरिवाजों को सुरक्षा दी गई है. व्यक्तिगत कानूनों की अत्यधिक विविधता के चलते किसी भी प्रकार की एकरूपता लाना कठिन हो जाता है. देश के विभिन्न समुदायों को एक मंच पर लाना कठिन काम है. यूसीसी में आदिवासियों पर भी वही कानून लागू होगा जो दिल्ली के हिंदू शहरियों पर लागू होता है. सचाई यह है कि यूसीसी की मांग केवल सांप्रदायिकता की राजनीति के लिए की जाती है. समाज का एक बड़ा वर्ग सामाजिक सुधार की आड़ में इसे हिंदूवाद के बढ़ते प्रभाव के रूप में देखता है. भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25, जो किसी भी धर्म को मानने और प्रचार की स्वतंत्रता को संरक्षित करता है, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में निहित समानता की अवधारणा के विरुद्ध है. ऐसे में यूसीसी लागू करना मुश्किल ही नहीं बेहद मुश्किल है. यूसीसी का पुराना राग जब 1930 में जवाहरलाल नेहरू ने यूसीसी का समर्थन किया तो वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं द्वारा इस का विरोध किया गया. यूसीसी का अर्थ एक धर्म और पंथ निरपेक्ष (सैक्युलर) कानून होता है.

जो सभी धर्म और पंथ के लोगों पर समानरूप से लागू होता है. विश्व के जिन देशों में यह कानून लागू है उन में अमेरिका, आयरलैंड, पाकिस्तान, बंगलादेश, मलयेशिया, तुर्की, इंडोनेशिया, सूडान और इजिप्ट जैसे कई देश हैं. भारत में अधिकतर निजी कानून धर्म के आधार पर तय किए गए हैं. हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध के लिए एक व्यक्तिगत कानून है, जबकि मुसलमानों और ईसाइयों के लिए अपनेअपने कानून हैं. मुसलमानों का कानून शरीयत पर आधारित है. अन्य धार्मिक समुदायों के कानून भारतीय संसद के संविधान पर आधारित हैं. भारत में यह विवाद ब्रिटिशकाल से ही चला आ रहा है. अंगरेज मुसलिम समुदाय के निजी कानूनों में बदलाव कर उस से दुश्मनी मोल नहीं लेना चाहते थे. 1882 में हैस्ंिटग्स योजना में शरीयत कानून लागू हो गया था. समान नागरिकता कानून उस वक्त कमजोर पड़ने लगा जब सैक्यूलरों ने मुसलिम तलाक और विवाह कानून को लागू कर दिया.

1929 में, जमीयत अल उलेमा ने बाल विवाह रोकने के खिलाफ मुसलमानों को अवज्ञा आंदोलन में शामिल होने की अपील की. इस बड़े अवज्ञा आंदोलन का अंत उस सम?ाते के बाद हुआ जिस के तहत मुसलिम जजों को मुसलिम शादियों को तोड़ने की अनुमति दी गई. क्या कहा था डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने भारतीय संविधान को तैयार करने में अहम भूमिका निभाने वाले डाक्टर बी आर अंबेडकर ने कहा, ‘‘मैं व्यक्तिगत रूप से सम?ा नहीं पा रहा हूं कि किसी धर्म और मजहब को यह विशाल, व्यापक क्षेत्राधिकार क्यों दिया जाना चाहिए कि वह लोगों के निजी, पारिवारिक मसले तय करे. ऐसे में तो धर्म जीवन के प्रत्येक पक्ष में हस्तक्षेप करेगा और विधायिका को उस क्षेत्र पर अतिक्रमण से रोकेगा. यह स्वतंत्रता हमें क्या करने के लिए मिली है? हमारी सामाजिक व्यवस्था असमानता, भेदभाव और अन्य चीजों से भरी है. यह स्वतंत्रता हमें इसलिए मिली है कि हम इस सामाजिक व्यवस्था में जहां हमारे मौलिक अधिकारों के साथ विरोध है वहांवहां सुधार कर सकें.

’’ वे यूसीसी से सहमत थे. यूसीसी का उल्लेख भारतीय संविधान के भाग 4 के अनुच्छेद 44 में है. इस में नीतिनिर्देश दिया गया है कि समान नागरिक कानून लागू करना हमारा लक्ष्य होगा. सर्वोच्च न्यायालय भी कई बार यूसीसी लागू करने की दिशा में केंद्र सरकार के विचार जानने की पहल कर चुका है. इस के बाद भी सरकारें इस को लागू करने से डर रही हैं. भारतीय संविधान की प्रस्तावना में 42वें संशोधन के माध्यम से धर्मनिरपेक्षता शब्द को इस में जगह दी गई. इस से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय संविधान का उद्देश्य भारत के समस्त नागरिकों के साथ धार्मिक आधार पर किसी भी भेदभाव को समाप्त करना है. लेकिन वर्तमान समय तक यूसीसी के लागू न हो पाने के कारण भारत में एक बड़ा वर्ग अभी भी धार्मिक कानूनों की वजह से अपने अधिकारों से वंचित है. सामाजिक और राजनीतिक विरोध से उपजे सवाल यूनिफौर्म सिविल कोड को लागू करने में कदमकदम पर बड़ी चुनौतियां हैं. एक तरफ जहां अल्पसंख्यक समुदाय नागरिक संहिता को अनुच्छेद 25 का हनन मानता है,

वहीं इस के समर्थक यूसीसी की कमी को अनुच्छेद 14 का अपमान मानते हैं. सवाल उठता है कि क्या सांस्कृतिक विविधता से इस हद तक सम?ाता किया जा सकता है कि समानता के प्रति हमारा आग्रह क्षेत्रीय अखंडता के लिए ही खतरा बन जाए? क्या एक एकीकृत राष्ट्र को ‘समानता’ की इतनी जरूरत है कि हम विविधता की खूबसूरती की परवा ही न करें? दूसरी तरफ सवाल यह भी है कि अगर हम सदियों से अनेकता में एकता का नारा लगाते आ रहे हैं तो कानून में एकरूपता से आपत्ति क्यों? क्या एक संविधान वाले इस देश में लोगों के निजी मामलों में भी एक कानून नहीं होना चाहिए? मुसलिम विरोध से उपजा हिंदुत्व का समर्थन हिंदुत्व के समर्थक इस कानून का समर्थन सिर्फ इस वजह से कर रहे हैं क्योंकि मुसलिम इस का विरोध कर रहे हैं. मुसलिम समाज यूसीसी का विरोध करते संविधान के अनुच्छेद 25 का हवाला देता है. वह कहता है कि संविधान ने देश के सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया है. इसलिए सभी पर समान कानून थोपना संविधान के साथ खिलवाड़ करने जैसा होगा.

मुसलिमों के मुताबिक उन के निजी कानून उन की धार्मिक आस्था पर आधारित हैं, इसलिए यूसीसी लागू कर उन के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप न किया जाए. मुसलिम विद्वानों के मुताबिक शरीया कानून 1400 साल पुराना है, क्योंकि यह कानून कुरान और पैगंबर मोहम्मद की शिक्षाओं पर आधारित है. यह उन की आस्था का विषय है. मुसलिमों को लगता है कि उन की धार्मिक आजादी धीरेधीरे उन से छीनने की कोशिश की जा रही है. मुसलमानों का विरोध करते वक्त हिंदुत्व के समर्थक यह नहीं सम?ा पा रहे कि केवल मुसलिम ही नहीं, हिंदू कानून भी खत्म हो जाएंगे. हिंदू धर्म में विवाह को एक संस्कार माना जाता है, वहीं इसलाम, ईसाइयों और पारसियों के रीतिरिवाज भी अलगअलग हैं. लिहाजा हर वर्ग के विवाह और उत्तराधिकार कानून पर असर पड़ेगा. 1948 में हिंदू कोड बिल संविधान सभा में लाया गया तब देशभर में इस बिल का जबरदस्त विरोध हुआ था. बिल को हिंदू संस्कृति तथा धर्म पर हमला करार दिया गया था. सरकार इस कदर दबाव में आ गई कि तत्कालीन कानून मंत्री भीमराव अंबेडकर को पद से इस्तीफा देना पड़ा. यही कारण है कि कोई भी राजनीतिक दल यूसीसी के मुद्दे पर जोखिम नहीं लेना चाहता. औरतों को मिलने वाली आजादी पचेगी नहीं भाजपा को यूसीसी के लागू होने से धार्मिक आधार पर महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव और गैरबराबरी के भाव को रोका जा सकेगा. सब से बड़ी आजादी तो उन मुसलिम और हिंदू महिलाओं को मिल सकेगी जो बहुविवाह और हलाला जैसी प्रथाओं का शिकार होती हैं. किसी भी सामाजिक सुधार का प्रभाव धर्म पर पड़ता है. जब राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के खिलाफ आवाज उठाई थी तो उन का धार्मिक विरोध हुआ था.

जब तक धर्म के भीतर की कुरीतियां खत्म नहीं होंगी, कोई सुधार नहीं हो सकता. हलाला और मुताह यानी कौन्ट्रैक्ट मैरिज जैसी कुरीतियों से बाहर निकलने के लिए धर्म का विरोध सहना पड़ेगा. किसी बदलाव को बहुत दिन रोका नहीं जा सकता. आज ईरान जैसे देश में परदाप्रथा का विरोध हो रहा है. इसी तरह कल जनता ही ऐसी कुप्रथाओं के खिलाफ खड़ी हो जाएगी. यूनीफौर्म सिविल कोड यानी यूसीसी का विरोध करने वालों का यह तर्क बेमानी है कि यह सभी धर्मों पर हिंदू कानून को लागू करने जैसा है. यदि चाहते हैं कि यूसीसी बने तो धार्मिक स्वतंत्रता का ध्यान रखा जाए. जबकि यूसीसी का अर्थ है- ‘भारत में रहने वाले हर नागरिक के लिए एकसमान कानून चाहे वह किसी भी धर्म और जाति का क्यों न हो.’ यूसीसी में शादी, तलाक और जमीनजायदाद के बंटवारे में सभी धर्मों के लिए एक ही कानून लागू होगा. यूसीसी सभी धार्मिक समुदायों पर लागू होने के लिए एक देश एक नियम का सा होगा.

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