ज्ञानवापी विवाद के भड़कने से न सिर्फ इस कानून के सामने चुनौती खड़ी हुई है बल्कि बचेकुचे सांप्रदायिक सौहार्द के गहरे पतन में चले जाने की आशंका बढ़ गई है. जब अयोध्या मंदिर प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया और उस को शांति के साथ देश के लोगों ने स्वीकार कर लिया तब यह उम्मीद जग गई कि अब मंदिरमसजिद को ले कर कोई पुराना विवाद नहीं उभरेगा. देश की धर्मनिरपेक्षता बची रहेगी. यहां का भाईचारा और गंगाजमुनी तहजीब बची रहेगी. इस बात का डर था कि समान नागरिक संहिता कानून की बात से विवाद बढ़ता दिख रहा था लेकिन उस मुददे में मंदिरमसजिद विवाद जैसी तासीर नहीं थी. मंदिरमसजिद विवादों को रोकने के लिए ही 1991 में धर्मस्थल विधेयक बनाया गया था जिस में कहा गया था कि 1947 में जिस धर्मस्थल की जैसी स्थिति थी वैसी ही आगे बनी रहेगी. ऐसे में देश अयोध्या के बाद किसी और मंदिरमसजिद विवाद में नहीं पड़ेगा.
राजनीति सत्ता की कुरसी हासिल करने का एक तरह का युद्ध है. जैसे कौरवों को सत्ता से हटाने के लिए पांडवों ने महाभारत की उसी तरह से एक पार्टी को सत्ता से हटाने के लिए दूसरी पार्टी साम, दाम, दंड और भेद का प्रयोग करती है. देश का संविधान कहता है कि राजनीति में धर्म का प्रयोग नहीं होना चाहिए लेकिन पूरे देश में धड़ल्ले से चुनाव जीतने के लिए धर्म का प्रयोग किया जाता है. अयोध्या का मंदिर विवाद एक ऐसा मुद्दा था जिस ने भारतीय जनता पार्टी के लिए सत्ता की सीढ़ी बनने का काम किया. यह बात और है कि अयोध्या ही नहीं, पूरे देश ने इस मुददे के कारण बहुत नुकसान झेला.
अयोध्या मुददे से अशांत हुआ देश का माहौल
1990 के पहले अयोध्या बहुत शांत शहर था. देशविदेश के लोग आते थे. अयोध्या के तमाम मंदिरों के साथ ही साथ राममंदिर के दर्शन करते थे. अयोध्या के प्रमुख मंदिरों में भंडारे चलते रहते थे, जहां बाहर से आने वालों को मुफ्त में खाना दिया जाता था. रैस्तरां और खाने के होटल व दुकानें बहुत कम थीं.
राममंदिर बनाने के लिए 1990 में कारसेवा आंदोलन विश्व हिंदू परिषद द्वारा शुरू किया गया. हजारों की संख्या में पहुंचे कारसेवकों को मंदिर पहुंचने से रोकने के लिए उस समय की मुलायम सरकार ने गोली चलवा दी, जिस के कारण दर्जनों कारसेवक मारे गए. अयोध्या की इस घटना ने पूरे देश के शांत माहौल मे ककंड़ मारने का काम किया. पूरे देश में उथलपुथल मच गई.
कश्मीर से ले कर देश के दूसरे हिस्सों में आतंकवाद का माहौल बन गया. हिंदू और मुसलमानों के बीच आपसी भरोसा तो टूटा ही, अयोध्या में दर्शन के लिए आने वाले लोगों की संख्या में भी कमी आ गई. 1990 के बाद हर साल कारसेवा आंदोलन होने लगा. धर्म की नगरी अयोध्या पुलिस की छावनी में बदल गई. यहां आने वालों की चैकिंग होने लगी. भीड़ को रोकने के लिए अयोध्या से 10 किलोमीटर पहले ही गाड़ियों को रोका जाने लगा. पैदल लोगों को जाने दिया जाता था. अयोध्या और मंदिर परिसर के पास रहने वाले किसी के घर में कोई मेहमान आता था तो उसे पुलिस में सूचना देनी होती थी. कब से कब तक मेहमान रहा, बताना पड़ता था. घर आतेजाते सुरक्षा जांच और तलाशी देनी पड़ती थी.
बहुत सारी सुरक्षा के बाद भी 1992 में अयोध्या में बाबरी मसजिद का विवादित ढांचा ढहा दिया गया. इस के बाद पूरे देश में तनाव फैल गया. मुंबई जैसे कई शहरों में बम विस्फोट हो गए. इस के कारण ही गुजरात में दंगे हुए. पूरा देश अशांत हो गया. अयोध्या के गुलजार रहने वाले मंदिरों में सन्नाटा छा गया. दर्शन करने आने वालों की संख्या में कमी आने लगी. जो मंदिर पहले भंडारे चलाते थे वहां भुखमरी की हालत आ गई. मंदिरमंदिर में मालिकाना हक को ले कर झगड़े होने लगे. अयोध्या में रहने वालों के कारोबार बंद होने लगे. लोगों का पलायन होने लगा. मंदिर परिसर से लगे घरों की मरम्मत तक कराने के लिए सरकार की इजाजत लेनी पड़ती थी. हर तरफ पुलिस ही पुलिस दिखने लगी थी.
अयोध्या में प्रवेश करते ही जांच कराते समय लगता था जैसे हम किसी और देश की सीमा को पार कर रहे हों. इन हालात हो बदलने में 24 साल का समय लग गया. बाबरी मसजिद को ले कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सभी ने सम्मान किया. अशांति भले खत्म हो गई पर हिंदूमुसलमानों के बीच जो दूरियां बढीं वे कम नहीं हुईं.
ऐसे में अयोध्या के बाद वाराणसी की ज्ञानवापी मसजिद का झगड़ा सामने आ गया है. वाराणसी के साथ ही साथ पूरे देश में चर्चा का सब से बड़ा बिंदु ‘ज्ञानवापी विवाद’ हो गया है. पूरा विवाद जिला अदालत से ले कर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक में एकसाथ चलने लगा है. रोज नए फैसले आने लगे हैं.
‘ज्ञानवापी विवाद’ से 1990 जैसी हालत
‘ज्ञानवापी विवाद’ की शुरुआत श्रंगार गौरी में पूजा अर्चना के अधिकार को ले कर हुई. इस के बाद कोर्ट ने वहां कमीशन नियुक्त कर दिया. जिसे यह बताना था कि ज्ञानवापी मसजिद में क्या हिंदू देवीदेवताओं और मंदिरों के निशान हैं? कोर्ट के इस आदेश के बाद ज्ञानवापी मसजिद पूरे देश में चर्चा का विषय हो गया.
ज्ञानवापी मसजिद वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर से हुआ सटी हुई है. इस मसजिद को ले कर विवाद है. एक पक्ष का दावा है कि मंदिर तोड़ कर यह मसजिद बनाई गई थी. इस का एक मुकदमा 1991 में जिला अदालत में लंबित है.
अगस्त 2021 में दिल्ली की रहने वाली 5 महिलाओं की तरफ से जिला अदालत में दाखिल याचिका पर सुनवाई हुई है. इस मुकदमे को राखी सिंह समेत 5 अन्य बनाम स्टेट औफ यूपी के नाम से जाना जाता है. याचिका में कहा गया कि परिसर में श्रृंगार गौरी की प्रतिमा साल में एक दिन दर्शनपूजन के लिए खुलती है लेकिन हम चाहते हैं कि श्रृंगार गौरी और अन्य की नियमित पूजापाठ की अनुमति दी जाए. यह मांग भी की गई कि अदालत कोर्ट कमिश्नर की नियुक्ति करे, जो इन सभी देवीदेवताओं की मूर्तियों की सुरक्षा सुनिश्चित करे. तर्क दिया गया था कि जिस स्थल को एक पक्ष मसजिद बता रहा है दरअसल वह मसजिद है ही नहीं, औरंगजेब ने मंदिर को तोड़ कर मसजिद का निर्माण कराया.
इस याचिका में अंजुमन इंतजामिया मसजिद को प्रतिवादी बनाया गया, जो मसजिद की देखभाल करती है. मसजिद पक्ष का दावा है कि मंदिर तोड़ कर मसजिद नहीं बनवाई गई बल्कि अकबर ने अपने दीन ए इलाही धर्म के तहत मंदिर और मसजिद का निर्माण कराया था. ऐसे में यह कहना गलत होगा कि मंदिर को तोड़ कर मसजिद बनाई गई.
इधर, लोअर कोर्ट का इस याचिका पर मिलाजुला ऐसा फैसला आया जो दोनों पक्षों को स्वीकार नहीं हुआ. दोनों पक्ष हाईकोर्ट चले गए और फिर हाईकोर्ट ने लोअर कोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी. इस के बाद यह मुकदमा बहुत धीमी गति से आगे बढ़ रहा था. इस मुकदमे में भी उसी तरह से बहुत सारे पेंच हैं, जैसे अयोध्या मामले में थे.
8 अप्रैल को निचली अदालत ने स्थानीय वकील अजय कुमार को कोर्ट कमिश्नर नियुक्त करते हुए परिसर का निरीक्षण करने और निरीक्षण की वीडियोग्राफी करने का आदेश दिया. अंजुमन इंतजामिया मसजिद के प्रबंधन ने कमिश्नर की नियुक्ति और निरीक्षण को हाईकोर्ट में चुनौती दी. कहा गया कि किसी पक्षकार को सुबूत इकट्ठा करने की इजाजत नहीं दी जा सकती. इस बात को ले कर आपत्ति दर्ज कराई गई कि जो अजय कुमार कोर्ट कमिश्नर नियुक्त किए गए हैं वे याचिकाकर्ताओं की पसंद पर किए गए हैं. हाईकोर्ट ने मसजिद प्रबंधन की दलीलों को खारिज करते हुए एडवोकेट कमिश्नर को मौजूदा सुबूत को सुरक्षित करने की पूरी छूट दी और कहा कि अगर मसजिद प्रबंधन को कमिश्नर की रिपोर्ट पर कोई आपत्ति होती है तो वे उसे कानूनी चुनौती दे सकते हैं.
इस के बाद निचली अदालत ने ईद के बाद सर्वे पूरा करने को कहा था. सर्वे के दौरान ही यह खबर फैल गई कि ज्ञानवापी मसजिद परिसर में शिवलिंग मिला है. दूसरे पक्ष ने इसे मसजिद के वजूखाने में प्रयोग होने वाला फव्वारा बताया. पूरे देश में ‘शिवलिंग बनाम फव्वारा’ को ले कर बहस तेज हो गई. सोशल मीडिया के जमाने में सच और झूठ को पहचान पाना बेहद मुशकिल हो गया है. ऐसे में देश को अशांत करने का एक नया हथियार मिल गया है.
धर्म और राजनीति
अयोध्या की तरह अब वाराणसी धर्म और राजनीति रण बन रहा है. ‘अयोध्या केवल झांकी है काशी, मथुरा बाकी हैं’ का नारा पहले से ही भाजपाई हिंदुवादियों के जबान पर था. इस नारे के पीछे ही पूरे विवाद की कहानी छिपी है.
धर्म की राजनीति करने वाली भारतीय जनता पार्टी को लगता है कि अयोध्या के बाद काशी का ज्ञानवापी विवाद और मथुरा का कृष्ण जन्मभूमि विवाद उस के लिए लाभकारी होगा. इस के सहारे हिंदुत्व को एक तरफ रखा जा सकेगा और इस से मुसलमानों की बात करने वाले राजनीतिक दल कमजोर पड़ कर मुकाबले से बाहर हो जाएंगे. वर्ष 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में यह बात सफल होती दिखी. भाजपा द्वारा योगी आदित्यनाथ के रूप में उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री संत समाज से दे कर हिंदुत्व की छवि को और मजबूत किया गया.
इस के बाद चुनाव दर चुनाव जीतने के लिए धर्म की राजनीति को महत्त्व दिया जा रहा है. अयोध्या में मंदिर बनाने को ले कर कोर्ट के फैसले के बाद भाजपा अब काशी और मथुरा मुददों को गरम देखना चाहती है. भले ही उस की सामने से कोई भूमिका न दिख रही हो लेकिन अयोध्या के बाद काशी और मथुरा उस की योजना का हिस्सा हैं.
यह बात अयोध्या आंदोलन के समय ही तय हो चुकी थी. इस से देश को कितना नुकसान होगा, यह बात भाजपा को पता है, लेकिन उसे इस की परवा नहीं. वह चुनावी राजनीति में मुसलमानों की संख्या और हैसियत को नगण्य करने की योजना में है. यही कारण है जिस की वजह से उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में ‘80 बनाम 20’ की बात की गई थी.
धर्मस्थल कानून
अयोध्या आंदोलन को हवा देने वाले लोग जिस समय ‘अयोध्या केवल झांकी है, काशी मथुरा बाकी हैं’ का नारा दे रहे थे उस समय की केंद्र सरकार को इस बात का आभास था कि देश में एक के बाद एक मसजिदमंदिर विवाद खड़े हो सकते हैं. ऐसे में 1991 में नरसिम्हा राव सरकार ने ‘प्लेस औफ वर्शिप एक्ट’ यानी ‘पूजा स्थल कानून 1991’ बनाया.
इसे 1991 में लागू किया गया. यह कानून कहता है कि 15 अगस्त, 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजास्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजास्थल में नहीं बदला जा सकता. यदि कोई इस एक्ट का उल्लंघन करने का प्रयास करता है तो उसे जुर्माना और 3 साल तक की जेल भी हो सकती है.
प्लेस औफ वर्शिप एक्ट की धारा-2 कहती है कि 15 अगस्त, 1947 में मौजूद किसी धार्मिक स्थल में बदलाव के विषय में यदि कोई याचिका कोर्ट में पैंडिंग है तो उसे बंद कर दिया जाएगा. प्लेस औफ वर्शिप एक्ट की धारा-3 के अनुसार किसी भी धार्मिक स्थल को पूरी तरह या आंशिक रूप से किसी दूसरे धर्म में बदलने की अनुमति नहीं है. इस के साथ ही यह धारा यह सुनिश्चित करती है कि एक धर्म के पूजा स्थल को दूसरे धर्म के रूप में न बदला जाए या फिर एक ही धर्म के अलग खंड में भी न बदला जाए.
प्लेस औफ वर्शिप एक्ट की धारा-4 (1) कहती है कि 15 अगस्त, 1947 को एक पूजा स्थल का चरित्र जैसा था उसे वैसा ही बरकरार रखा जाएगा. प्लेस औफ वर्शिप एक्ट की धारा-4 (2) के अनुसार, यह कानून उन मुकदमों और कानूनी कार्यवाहियों को रोकने की बात करता है जो प्लेस औफ वर्शिप एक्ट के लागू होने की तारीख पर पेंडिंग थे. प्लेस औफ वर्शिप एक्ट की धारा-5 में प्रावधान है कि यह एक्ट रामजन्मभूमि-बाबरी मसजिद मामले और इस से संबंधित किसी भी मुकदमे, अपील या कार्यवाही पर लागू नहीं करेगा. ज्ञानवापी विवाद में इस कानून की परीक्षा होनी है. अभी तक जिस तरह से कोर्ट ने ज्ञानवापी विवाद में पूजा स्थल कानून का मान रखा है उस से ज्ञानवापी का पक्ष संतुष्ट नहीं है.
मनुवादी की बढती धमक
दूसरी तरफ हिंदू पक्ष इस पूजा स्थल कानून से खुश नहीं है. वह इसे खत्म करने की मांग कर रहा है. ज्ञानवापी विवाद को अगर पूजा स्थल कानून के कारण खत्म मान लिया जाएगा तो मथुरा का मंदिरमसजिद विवाद भी खत्म समझा जा सकता है, लेकिन अगर पूजा स्थल कानून की किसी खामी को आधार बना कर ज्ञानवापी विवाद में कोई फैसला आया तो यह पक्का है कि मथुरा विवाद भी तेजी पकड़ेगा. उस को भी हवा मिल जाएगी. यही नहीं, पूरे देश में तमाम जगहों से मसजिद और पूजा स्थल विवाद शुरू हो जाएंगे, जिन का कोई अंत नहीं दिखेगा. इस बहस से देश को क्या हासिल होगा?
असल में हिंदुत्व की राजनीति करने वाले लोग एक नए किस्म का देश बनाना चाहते हैं, जिस में मनुवादी वर्णव्यवस्था को कायम करने का काम किया जाएगा. जिस में ऊंचीनीची जातियों की औरतों, ओबीसी और एससी वर्ग के लोगों को धर्म और मंदिर का नशा दे कर चुप रखा जा सके.
इस का नुकसान मुसलमानों को तो होगा ही, उस से ज्यादा नुकसान हिंदू जाति के दलित और पिछड़ों को होगा. राजनीतिक रूप से देखा जाए तो यह बात साफ दिखती है. वर्ष 1989 में जब मंडल कमीशन लागू हुआ तो अयोध्या आंदोलन के रूप में कमंडल को आगे किया गया. ऐसे में दलितपिछड़ों की राजनीति को दरकिनार कर दिया गया. धीरेधीरे उत्तर प्रदेश में दलितपिछड़ों की अगुआई करने वाली बसपा और सपा हाशिए पर चली गईं. अयोध्या के बाद काशी और मथुरा इस के नए साधन बनेंगे.