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सत्ता से फिसलता कांग्रेस का हाथ

आम चुनावों का सेमीफाइनल माने जा रहे 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में वसुंधरा राजे ने राजस्थान से कांग्रेस को उखाड़ फेंका तो मध्य प्रदेश में शिवराज की आंधी में कांग्रेस उड़ गई. दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस पर झाड़ू फिरा दी. जबकि छत्तीसगढ़ में रमन सिंह की लोकलुभावन योजनाओं के आगे कांग्रेस सम्मानजनक हार से नहीं बच पाई. मिजोरम छोड़ कर बाकी राज्यों के नतीजों से साफ है कि इन चुनावों में कांग्रेसी किले में सेंध ही नहीं लगी बल्कि पूरा किला ही ध्वस्त होने के कगार पर है. पढि़ए भारत भूषण श्रीवास्तव की रिपोर्ट.

‘जनजन से नाता है, सरकार चलाना आता है’ का नारा देने वाली कांग्रेस 5 महत्त्वपूर्ण राज्यों के विधानसभा चुनावों में औंधेमुंह गिरी है. दिल्ली और राजस्थान उसे गंवाने पड़े तो मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में वापसी के टूटे सपने ने उसे कड़वा घूंट यह पिला दिया कि अब न जनजन से उस का नाता रहा है न ही उस के सूबेदार सरकार चला पाते हैं. अकेले मिजोरम से उसे थोड़ा सुकून मिला जो कतई निर्णायक या क्षतिपूर्ति वाला कहा जा सकता है.

कांग्रेस बुरी तरह क्यों हारी, इस सवाल का एक नहीं ढेरों अलगअलग जवाब हैं. ये वे राज्य हैं जहां कोई तीसरी ताकत कभी नहीं पनपी. कांग्रेस का अपना परंपरागत वोटबैंक इन में रहा है पर दिल्ली से यह मिथक भी टूटा है कि अगर आदर्श विकल्प हो तो मुश्किलें भारतीय जनता पार्टी की राह में भी कम नहीं. भाजपा या कांग्रेस को ही चुनना मतदाता की मजबूरी रही है. आम आदमी पार्टी की दिल्ली में अप्रत्याशित सफलता ने देशभर के लोगों को एक आस बंधाई है कि विकल्प हो तो लोग पेशेवर दलों की गिरफ्त से बाहर निकल सकते हैं. लोकतंत्र में राजनीति या नेताओं से नफरत कर उन से छुटकारा नहीं पाया जा सकता अलबत्ता उन्हें नकार कर सबक जरूर सिखाया जा सकता है.

कांग्रेस अभी भी देश का सब से बड़ा राजनीतिक दल है लेकिन 2014 में रह पाएगा, इस में थोड़ा शक है. 8 दिसंबर की गिनती में उसे उम्मीद से ज्यादा घाटा हुआ है जो बरकरार रहा तो साफ दिख रहा है कि लोकसभा में करारी हार का सामना करना पड़ सकता है.

4 राज्यों में कोई मुद्दा या लहर नहीं थी. एक हद तक प्रादेशिक व्यक्तित्व ही चले, प्रबंधन चला और इस से ज्यादा असर डालने वाली बात नेताओं की आम लोगों से आत्मीयता का चलना रही. दिल्ली छोड़ बाकी 4 राज्यों में 70 फीसदी से ज्यादा मतदान हुआ, जो चौंका देने वाली बात थी. पहले की तरह कहीं चुनावी हिंसा नहीं हुई लोगों ने अपने अंदर कहीं लोकतंत्र को महसूसते वोट डाला और उस की ताकत का इस्तेमाल किया. इस में कोई शक नहीं कि मतदान कांग्रेस के खिलाफ हुआ पर इस बात में शक की तमाम गुंजाइशें मौजूद हैं कि मतदान भाजपा के पक्ष में ही हुआ. दिल्ली की हालत बताती है और तमाम राजनीतिक दल व विश्लेषक इस बात को समझ भी रहे हैं कि राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को सबक सिखाने के लिए मतदाता के पास कोई तीसरा दल था ही नहीं.

इन राज्यों में तसवीर अलगअलग थी. मतदाताओं ने नेताओं और प्रत्याशियों का सटीक मूल्यांकन किया इसीलिए सभी दलों के कई दिग्गज भी सभी राज्यों में हारे. ऐसा हालांकि हर चुनाव में होता है कि काम न करने वाले भ्रष्टाचारी और जनता की न सुनने वाले विधायकों व मंत्रियों को मतदाता सबक सिखाता है पर आमतौर पर मुख्यमंत्रियों को नहीं हराता. सत्तारूढ़ दल की हालत कितनी ही पतली हो उस के मुख्यि को मतदाता जिताते हैं लेकिन नई दिल्ली सीट पर मतदाताओं ने शीला दीक्षित पर कोई रहम नहीं खाया और बड़ा जोखिम उठा रहे आम आदमी पार्टी यानी ‘आप’ के मुखिया अरविंद केजरीवाल को चुना.

विधानसभा चुनाव नतीजों के विश्लेषण से पहले बात कांग्रेस की 2014 के लोकसभा चुनाव में भूमिका की करें तो इस बात से सहमत नहीं हुआ जा सकता कि वह खत्म हो रही है. दरअसल,  कांग्रेस के टुकड़े ही इतने बड़े हैं कि कुछ राज्यों में शासन कर रहे हैं या फिर उस का सहयोग कर रहे हैं. ममता बनर्जी और शरद पवार इस की बेहतर मिसाल हैं जिन के कांग्रेस से मतभेद सैद्धांतिक नहीं थे, न अभी हैं.

बात सिर्फ इतनी थी कि उन्होंने अपनी ताकत को पहचाना, बढ़ाया और अलग बादशाहत खड़ी कर ली. कांग्रेस इन और ऐसी विचारधारा यानी धर्मनिरपेक्ष दलों से खतरा भी नहीं महसूस करती समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राजद और जनता दल (यूनाइटेड) सहित दक्षिण भारत के क्षेत्रीय दलों के दम पर वह व उस के नेतृत्व वाले गठबंधन और यूपीए प्रतिद्वंद्वी भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन एनडीए पर अभी भी भारी पड़ते हैं.

खामोश प्रधानमंत्री

ताजे नतीजों के बाद हर बात कही गई लेकिन एक बड़ा फैक्टर प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह पर किसी ने ध्यान नहीं दिया कि वे खामोश क्यों रहे. नाममात्र का प्रचार उन्होंने किया और उस में भी भाषणों से मतदाता को प्रभावित नहीं कर पाए जबकि एक प्रधानमंत्री से जनता स्वाभाविक अपेक्षाएं रखती है कि वह राज्यों के बारे में, चाहे वे कांग्रेस शसित हों या गैरकांग्रेसी, खुल कर बोलें.

कांग्रेस इस जज्बे को समझ नहीं पाई कि डा. मनमोहन सिंह से लोग उन के राज्य के बारे में जाननासुनना चाहते हैं. विदेश नीति या कूटनीतिक मसलों का विधानसभा चुनाव में न कोई मतलब होता है न फर्क पड़ता है. केंद्र राज्यों के लिए क्या कर रहा है, यह जिज्ञासा लोगों में थी और इच्छा भी, कि बजाय कांग्रेसी नेताओं के, प्रधानमंत्री जोरदार पहल करें और आक्रामक रुख अपनाएं जो मनमोहन सिंह ने नहीं किया.

मंत्रियों का बड़बोलापन

कपिल सिब्बल, जयराम रमेश और हरीश रावत सरीखे दर्जनभर मंत्रियों ने प्रचार के नाम पर चारों राज्यों में हंसीठिठोली सी ही की. सब के सब नरेंद्र मोदी को कोसने में लगे रहे. कपिल सिब्बल का यह बड़बोलापन आम तो आम बुद्धिजीवियों को भी पसंद नहीं आया कि गरीब अब सब्जी भी खाने लगा है, इसलिए महंगाई बढ़ रही है. भ्रष्टाचार क्यों बढ़ रहा है, इस पर बोलने या कोई दलील देने की हिम्मत किसी मंत्री की नहीं पड़ी.

ये तमाम केंद्रीय मंत्री या तो बेहतर जानते थे कि लाख सिर पटकने पर भी इन राज्यों से नतीजे कांग्रेस के हक में नहीं निकलने वाले या फिर उन्हें एक नापसंद ड्यूटी सौंप दी गई थी जिसे अधिकांश वक्त उन्होंने प्रदेश कांग्रेस कार्यालयों में कौफी पीते बिताया. इन में से कोई भी चुनाव और मतदाता के प्रति गंभीर नहीं दिखा जिस का लोगों पर उलटा असर पड़ा.

लचर प्रबंधन

हार के बाद राज्यों के कांग्रेसी दिग्गज यह मान रहे हैं कि पार्टी ने प्रचार देर से शुरू किया, उम्मीदवारों के चयन में कोताही बरती और भाजपाई दुष्प्रचार का सटीक जवाब नहीं दे पाई.

इस स्वीकारोक्ति से कांग्रेसियों का अपराधबोध भी कम हुआ और राहुल गांधी के सिर ठीकरा न फोड़ा जाए, इस का श्रेय भी वे लूट ले गए. ऐसा 2008 के चुनाव में भी हुआ था पर कांग्रेस ने कोई सबक नहीं सीखा. अब आम मतदाता ही कह रहा है कि आप को रोका किस ने था. सच दिग्विजय सिंह या अशोक गहलोत नहीं बोल पा रहे कि रोका अंदरूनी कलह, फूट और सुस्ती ने था जो दूसरी पंक्ति के नेताओं में सभी प्रदेशों में दिखी.

उलट इस के, भाजपा ने प्रचार का पूरा कैलेंडर काफी पहले बना लिया था कि कब कहां किस की सभा और रैली होगी, इस का पूरा फायदा उसे मिला. उस का कार्यकर्ता अपने मतदाता को पहचान उसे बूथ तक ले जाने में सफल रहा.

मुद्दा नहीं मोदी

जब नतीजे भाजपा के पक्ष में आने शुरू हुए तो यह कहना एक बेवजह की बात थी कि नरेंद्र मोदी की लहर चली और राहुल गांधी फ्लौप हो गए. शायद ही कोई मतदाता यह कहे कि उस ने विधानसभा चुनाव में वोट मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए डाला था. मोदी को हीरो बनाने की कोशिश भाजपा जानबूझ कर कर रही है, मकसद कांगे्रस को उकसाना है जिस से वह बौखला कर राहुल गांधी को इस पद का उम्मीदवार घोषित कर दे. दिग्विजय सिंह जैसे नेता इस चाल में फंस कर 9 दिसंबर को कह ही बैठे कि राहुल गांधी को आगे आना चाहिए. दरअसल, दिग्विजय सिंह कह यह रहे थे कि उन में और उन के साथियों में मोदी का मुकाबला करने की हिम्मत नहीं बची.

इस हकीकत पर कम ही लोग ध्यान दे रहे हैं कि यह मोदी लहर होती तो दिल्ली में आप गले की हड्डी न बन पाती, छत्तीसगढ़ में भी मध्य प्रदेश और राजस्थान सरीखी आंधी चलती और मिजोरम में भाजपा 5-7 सीटें ले जाती. यह भी कोई नहीं देख रहा कि मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह ने प्रचार सामग्री में न मोदी का नाम छापा न उन का फोटो टांगा. तय है कि महत्त्वाकांक्षी शिवराज सिंह चौहान खुद ही प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे हैं.

अच्छी बात यह है कि 4 राज्यों के नतीजों ने कई दंभी कांग्रेसी नेताओं का भ्रम तोड़ दिया है कि उन के बगैर सरकार नहीं चल सकती पर चिंता की बात कांग्रेस के लिहाज से यह है कि दलित, आदिवासी और मुसलमानों के अलावा महिला व युवावर्ग भी इस से बिदक रहा है. आम लोग राजनेताओं से किसी चमत्कार की उम्मीद नहीं रखते. वे एक मिलनसार और सरल नेता चाहते हैं जिस के भाषणों में खुदगर्जी न हो.

व्यक्तित्व का जादू

230 विधानसभा सीटों वाले राज्य मध्य प्रदेश में भाजपा ने 165 सीटें जीत कर कांग्रेस को 58 सीटों पर समेट कर रख दिया है. बसपा को इस बार 4 सीटों से तसल्ली यहां करना पड़ी. नतीजे देख खुद शिवराज सिंह चौहान हैरान थे क्योंकि इतने रिकौर्ड बहुमत की उम्मीद उन्हें भी नहीं थी. शिवराज का ठेठ देसी अंदाज, सीधे संवाद और कल्याणकारी योजनाओं पर मतदाता न्योछावर हुआ. कई जगह तो उम्मीदवार नापसंद होते हुए भी लोगों ने भाजपा को महज इसलिए वोट दिया कि उन के तीसरी बार मुख्मयंत्री बनने में कोई रोड़ा न आए. इतनी लोकप्रियता और लगाव मध्य प्रदेश में पहले किसी नेता को नहीं मिला.

कांग्रेसी खेमे के दिग्गजों की फौज कागजी साबित हुई. स्टार प्रचारक ज्योतिरादित्य सिंधिया की पहली प्रतिक्रिया यही थी कि वोट शिवराज को मिले हैं, हम नरेंद्र मोदी से नहीं शिवराज सिंह चौहान से हारे हैं. कमलनाथ और दिग्विजय सिंह अपने समर्थकों को भी नहीं जिता पाए. कांग्रेस अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया को इतना तगड़ा सदमा लगा कि उन्होंने अपने इस्तीफे की औपचारिक पेशकश भी 2 दिन बाद की.

अंदरूनी कलह और भितरघात से कांग्रेस मुक्त नहीं हो पाई. अब उस के सिपहसालार दूसरी परंपरागत गलती राहुल, सोनिया गांधी की चाटुकारिता करने की कर रहे हैं. दिग्विजय सिंह को इकलौता समाधान यह लग रहा है कि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया जाए. घुड़दौड़ में हारने के बाद खिलाड़ी बताते हैं कि उन का घोड़ा क्यों हारा, यही दिग्विजय सिंह कर रहे हैं जो दुखी दिखने में माहिर हैं. दरअसल, राज्य के तमाम कांग्रेसी चाटुकारिता और अलाली (काहिली) की गिरफ्त में हैं.

राहुल गांधी को अगर मध्य प्रदेश में वापसी चाहिए तो सालों से संगठन पर कुंडली मारे बैठी निकम्मों की इस फौज की छंटनी करनी होगी. साफ तौर पर कहें तो कांग्रेस बनाने के लिए कांग्रेस खत्म करनी होगी. पर ऐसा करने का जोखिम अब वे लोकसभा चुनाव तक तो नहीं उठा सकते. वजह, कमलनाथ, दिग्विजय और ज्योतिरादित्य सिंधिया सूबे के बड़े ब्रांड हैं जिन के बगैर कांग्रेस यहां एक कदम भी नहीं चल सकती, वैसे भी उस का रास्ता खत्म होता दिख रहा है.

महंगे पड़े सैक्स स्कैंडल्स

200 सीटों वाले राजस्थान में भाजपा ने 162 सीटें जीतीं, कांग्रेस के पास 21 सीटें ही रहीं और दूसरे दल 16 सीटें ले गए. यह आंकड़ा कांग्रेस और भाजपा दोनों के ही लिहाज से चौंका देने वाला है. भाजपा को इतनी ज्यादा और कांग्रेस को इतनी कम सीटें मिलने की उम्मीद नहीं थी. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कांग्रेस के लिए खलनायक साबित हुए. शीला दीक्षित की तरह उनका चेहरा भी हमेशा सख्त रहा हालांकि विकास कार्यों में उन्होंने कंजूसी नहीं की. हां, उन की एक बड़ी कमजोरी नौकरशाही पर पकड़ न होना रही.

वहीं, 5 सालों में राजस्थान में यौन शोषण के मामलों का भी विकास हुआ. भंवरी देवी कांड से ले कर बाबूलाल नागर जैसे मंत्री ऐयाशी में डूबे रहे और अशोक गहलोत उन के परिजनों को रेवड़ी की तरह टिकट दे बैठे. नतीजतन मतदाता का गुस्सा भड़ास में बदल गया. महिपाल मदेरणा की पत्नी लीला मदेरणा और मलखान सिंह बिश्नोई की मां अमरी देवी के अलावा बाबूलाल नागर के भाई हजारीलाल को टिकट दे कर कांग्रेस ने खुद अपनी कब्र खोद ली थी. इन दागियों के माथे पर तिलक लगाया गया तो मुफ्त दवा वितरण, मुफ्त जांच, गरीबों को

निशुल्क आवास और सस्ता अनाज देने की महत्त्वपूर्ण योजनाएं लोकप्रभावी साबित नहीं हो पाईं.

अशोक गहलोत और कांग्रेस की तमाम कमजोरियों का फायदा वसुंधरा राजे सिंधिया ने उठाया. वे वैसे ही गांवगांव घूमीं जैसे 2003 में उमा भारती मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह के खिलाफ घूमी थीं. मुद्दे अलग थे, हालात अलग थे पर नतीजा भाजपा के हक में निकालने में वे कामयाब रहीं. अशोक गहलोत भले ही हार का ठीकरा केंद्र के सिर फोड़ते रहें पर हकीकत यह है कि वे राजस्थान संभाल नहीं पाए.

रणनीति में खोट

90 सीटों वाले छत्तीसगढ़ में भाजपा को 49 और कांगे्रस को 39 सीटें मिलीं. मिजोरम के बाद चारों राज्यों में से कांग्रेस यहां सब से मजबूत स्थिति में थी. जीरम घाटी में नक्सली नरसंहार में उस के शीर्ष नेताओं–महेंद्र कर्मा, विद्याचरण शुक्ल और नंदकुमार  पटेल की हत्या के बाद नेतृत्वहीनता के हालत बन गए थे. एक हादसे में अपने पैर गंवा बैठे अजीत जोगी चुनाव में भागादौड़ी नहीं कर पाए. प्रदेश अध्यक्ष चरणदास महंत ने जोर लगाया पर इस शर्त पर कि जोगी या उन की पत्नी रेणु जोगी को सीएम प्रोजैक्ट नहीं किया जाएगा. पुराने दिग्गज मोतीलाल वोरा भी यही चाहते थे. यही कलह 10 सीटों के अंतर की बड़ी वजह बनी.

आदिवासी बाहुल्य यह राज्य कभी कांग्रेस का गढ़ रहा था पर रमन सिंह के काबिज होने के बाद मतदाता की मानसिकता बदली. रमन सिंह बहुत ज्यादा लोकप्रिय मुख्यमंत्री नहीं रहे. उन्हें इकलौता फायदा कांग्रेसी कलह का मिलता रहा. भाजपा के पास भी कोई दूसरा वजनदार चेहरा यहां नहीं था.

2008 में रमन सिंह को समझ आ गया था कि अगर सत्ता में बने रहना है तो आम आदमी से सीधे संवाद रखा जाए और काम किए जाएं. उन्होंने काम किए भी. सस्ता अनाज बांटने की योजना इस गरीब राज्य में खासी पसंद की गई जिस ने भाजपा को हटाने से बचाने में खास भूमिका निभाई.

दूसरे राज्यों के मुकाबले छत्तीसगढ़ में भ्रष्टाचार कम रहा, भाजपा में कलह भी नहीं थी. अहम फैक्टर आरएसएस का परदे के पीछे से चुनावी संचालन था. बस्तर में कांगे्रस को 12 सीटों पर हमदर्दी का फायदा मिला. 2008 में यहां आदिवासी मतदाताओं ने कांग्रेस को नकार दिया था. तीसरी ताकतें यहां भी उल्लेखनीय नहीं थीं.

एक बड़ी मात कांग्रेस ने चुनाव प्रचार के मामले में खाई. मध्य प्रदेश और दूसरे कांग्रेसी राज्यों के मुकाबले छत्तीसगढ़ में कार्यकर्ता ज्यादा हैं पर उन्हें नहीं मालूम था कि कब, कहां और कैसे प्रचार करना है. चूंकि कोई मुद्दा नहीं था इसलिए नक्सली नरसंहार पर निचले कार्यकर्ताओं ने ज्यादा जोर दिया जो शहरी इलाकों में नहीं चला.

दिल्ली में पहले आप पहले आप 70 सीटों वाली दिल्ली में कांग्रेस महज 8 सीटों पर सिमट कर रह गई, भाजपा 32 सीटें ले कर सब से बड़ी पार्टी रही और ‘आप’ ने 28 जगहों पर खाता खोला. एक सीट शिरोमणि अकाली दल और एक जनता दल (यू) के खाते में गई.

सरकार बनाने को 36 सीटें चाहिए जो किसी के पास नहीं. शीला दीक्षित खुद नई दिल्ली सीट से अरविंद केजरीवाल के हाथों 25 हजार से भी ज्यादा वोटों से हारीं लेकिन उन्हें अफसोस कांग्रेस की हार का ज्यादा है. कांग्रेस में कोई सशक्त या निर्णायक मुद्दा नहीं था. मुख्यमंत्री के रूप में शीला दीक्षित का कार्यकाल कई महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों वाला भरा रहा लेकिन व्यक्तिगत कमियां, ‘आप’ का जादू और केंद्र के प्रति नाराजगी की कीमत उन्हें यहां चुकानी पड़ी. वर्तमान स्थिति यह है कि दिल्ली में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिलने से राजधानी में फिलहाल राष्ट्रपति शासन के आसार दिखाई दे रहे हैं.

मिजोरम में बच गई लाज

40 विधानसभा सीटों वाले मिजोरम में सत्तारूढ़ दल कांग्रेस को रिकौर्ड 34 सीटें मिलीं. मिजो नैशनल फ्रंट 5 सीटों पर सिमट कर रह गया. 19 उम्मीदवार उतारने वाली भाजपा को यहां मायूसी हाथ लगी.

मिजोरम में भी कोई चुनावी मुद्दा नहीं था. इस छोटे से राज्य की दिक्कत यह है कि इसे देश की मुख्यधारा का हिस्सा नहीं समझा जाता. विधानसभा चुनावों के किसी सर्वे या एक्जिट पोल में मिजोरम को शामिल नहीं किया गया. इस भेदभाव और ज्यादती पर मिजोरम के लोगों ने आपत्ति दर्ज कराई थी पर उसे मीडिया ने खबर नहीं बनाया. दूसरे राज्यों के मुकाबले मिजोरम के लोग कम जागरूक नहीं, यहां साक्षरता की दर 85 प्रतिशत है. उद्योगविहीन इस राज्य की त्रासदी मुख्यधारा से कटाव है. बावजूद इस के, यहां शांति की बहाली कांग्रेस की उल्लेखनीय उपलब्धि मानी जाती है.

म्यांमार और बंगलादेश की सीमाओं से सटे मिजोरम के मतदाताओं से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने नवंबर महीने की अपनी रैली में वादों की झड़ी लगा दी थी. यहां लगातार 5वीं बार कांग्रेस की सरकार बनी है.         

करोड़ों की ‘…राम-लीला’

इधर धार्मिक संगठन फिल्म ‘गोलियों की रासलीला राम-लीला’ के पोस्टर जला रहे थे उधर जनता थिएटर में फिल्म को चटखारे ले कर देख रही थी. देखतेदेखते फिल्म ने करोड़ों की कमाई कर 100 करोड़ी क्लब में एंट्री भी मार ली. ये बेचारे फिल्म पर फतवा जारी कर उसे बैन करने का सपना देखते रह गए. इन्हें पता ही नहीं चला कि अंजाने में जो फिल्म की फ्री में पब्लिसिटी की है, उस से फिल्म की कमाई में इजाफा ही हुआ है.

पब्लिक को सालों पुरानी रामलीला नहीं बल्कि आज की बिंदास और बोल्ड ‘…राम-लीला’ ज्यादा पसंद है.        

रितिक और सुजेन में दरार

बौलीवुड में रितिक रोशन बेहद सुलझे हुए इंसान माने जाते हैं. लेकिन निजी जिंदगी में बच्चों के चहेते सुपरहीरो ‘कृष’ और उन की पत्नी के बीच रिश्ते कुछ ठीक नहीं चल रहे हैं. रितिक ने साफ कर दिया है कि उन की पत्नी सुजेन उन से तलाक ले रही हैं. 17 साल पुराने इस रिश्ते के ऐसी स्थिति तक पहुंचने के कारणों पर दोनों मुंह नहीं खोल रहे. बहरहाल, ऐसी बातें इश्क और मुश्क की तरह छिपी नहीं रह पातीं.

 

निराश क्यों हैं आमिर

आमिर खान साल में इक्कादुक्का फिल्में भले ही करते हों लेकिन पब्लिसिटी के मामले में कई बिजी कलाकारों को भी पीछे छोड़ देते हैं. कभी सामाजिक गतिविधियों में भागीदारी से चर्चा बटोरते हैं तो कभी बयानबाजी से. इस बार वे होमो- सैक्सुअल समुदाय के लिए खासे परेशान दिख रहे हैं. हुआ यों कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 11 दिसंबर को समलैंगिक रिश्तों को अपराध करार दिया गया है. इस आदेश पर आमिर अलगअलग मंचों पर निराशा व्यक्त करते फिर रहे हैं. उन के मुताबिक, न्यायालय का यह आदेश मानवाधिकारों का उल्लंघन है. अब आमिर आने वाले समय में इस समुदाय विशेष पर कोई फिल्म या सीरियलबाजी करें तो चौंकना नहीं चाहिए.

 

 

 

 

नहीं रहे पौल वाकर

किसी हौलीवुड के एक्शन सीन जैसा ही हादसा हुआ. जब तेज स्पीड से पौल वाकर की कार पेड़ से टकराई और पलभर में जल कर राख हो गई. गौरतलब है कि पौल वाकर की 30 नवंबर को नौर्थ लास ऐंजिलस में एक कार ऐक्सिडैंट में मौत हो गई. हौलीवुड की सुपरहिट फिल्म सीरीज फास्ट ऐंड फ्यूरियस से पौपुलर हुए 40 वर्षीय पौल वाकर किसी इवैंट के लिए निकले थे. लेकिन जरूरत से ज्यादा स्पीड के चलते कार ने ऐसा नियंत्रण खोया कि यह उन का आखिरी सफर बन गया. पौल 25 से ज्यादा फिल्मों और दर्जनभर टीवी प्रोग्राम्स में काम कर चुके थे. पिछले दिनों पौल फास्ट ऐंड फ्यूरियस 7 में काम कर रहे थे. इस हादसे के चलते फिल्म फिलहाल अधर में लटक गई है.

 

बैंड, बाजा, बरात

साल का आखिरी महीना शादी का सीजन कहा जा सकता है. इस सीजन में मिस इंडिया वर्ल्ड और बौलीवुड ऐक्ट्रैस सयाली भगत ने मुंबई के एक होटल में अपने फैमिली फ्रैंड और उद्यमी नवनीत प्रताप के साथ सात फेरे लिए. आम फिल्मी शादियों की तरह उन की शादी में बौलीवुड का कोई चेहरा नजर नहीं आया.

सयाली ने 2007 में आई फिल्म ‘द ट्रेन’ में इमरान हाशमी के साथ अपना फिल्मी कैरियर शुरू किया था लेकिन उस के बाद उन्हें खास काम नहीं मिला. इस बीच उन के अफेयर और कंट्रोवर्सी जरूर सुर्खियां बनते रहे. सयाली के अलावा इस माह फिल्म ‘रागिनी एमएमएस’ की अभिनेत्री कैनाज मोतीवाला ने भी शादी कर अपने लगभग खत्म कैरियर को अलविदा कह दिया.

 

 

बुलेट राजा

निर्देशक तिग्मांशु धूलिया ने अपनी फिल्म ‘बुलेट राजा’ में गोलियों की धांयधांय तो खूब कराई है परंतु निशाना लगाने में वे बारबार चूकते नजर आए हैं. फिल्म को बिकाऊ बनाने के लिए उन्होंने इस में मसाले डाले हैं. अगर हम उन की पिछली फिल्मों ‘पान सिंह तोमर’ और ‘साहेब, बीवी और गैंगस्टर’ पर नजर डालें तो पाएंगे कि उन फिल्मों में एक कलात्मकता थी, बाकायदा कहानी थी, मगर इस फिल्म में सिर्फ गोलियों की गूंज के अलावा कुछ नहीं है.

फिल्म की पृष्ठभूमि में तथाकथित उत्तर प्रदेश की राजनीति है जो पूरी तरह बनावटी है. राजा मिश्रा (सैफ अली खान) की लखनऊ शहर में रुद्र (जिमी शेरगिल) से मुलाकात होती है, जो एक कूरियर कंपनी में नौकरी करता है. दोनों में दोस्ती हो जाती है. एक दिन रुद्र के घर उस के चाचा परशुराम (शरत सक्सेना) के परिवार वालों पर एक बाहुबली अखंडवीर के आदमी हमला कर देते हैं. राजा और रुद्र मोरचा संभालते हैं. परशुराम उन्हें जेल से बाहर निकलवाता है. दोनों परशुराम की सेना में शामिल हो जाते हैं. परशुराम के साथ बरसों से रह रहा लल्लन (चंकी पांडे) धोखे से परशुराम की हत्या कर देता है. अब राजा और रुद्र लल्लन को मार डालते हैं. दोनों एक पावरफुल मिनिस्टर रामबाबू (राज बब्बर) से जुड़ जाते हैं और एक फाइनैंसर बजाज (गुलशन ग्रोवर) को मार डालते हैं.

यहां उन की मुलाकात एक युवती मिताली (सोनाक्षी सिन्हा) से होती है. राजा उस से प्यार कर बैठता है और उस के साथ कोलकाता चला जाता है. इधर, एक नामी गुंडा सुमेर यादव (रवि किशन) रुद्र को मार डालता है. पता लगने पर राजा वापस लखनऊ लौटता है. शहर में उस का खौफ पैदा हो जाता है. राजा सुमेर यादव को मार कर बदला लेता है. अब राजनीतिक दबाव में आ कर रामबाबू इंस्पैक्टर अरुण सिंह (विद्युत जामवाल) को राजा को मारने के लिए भेजता है. वह राजा को घेर कर उस पर गोलियां चलाता है और उसे मरा जान कर चला जाता है. उधर, राजा फिर से उठ कर खड़ा होता है.

फिल्म की यह कहानी और पटकथा स्वयं तिग्मांशु धूलिया ने लिखी है. फिल्म में किरदार बहुत ज्यादा हैं. कौन क्या कर रहा है, समझने के लिए दिमाग पर जोर डालना पड़ता है. फिल्म की गति काफी तेज रखी गई है, खासकर मध्यांतर के बाद. क्लाइमैक्स अटपटा है.

जिन दर्शकों ने सैफ अली खान की ‘ओमकारा’ फिल्म देखी होगी उन्हें इस फिल्म में सैफ का किरदार वैसा ही लगेगा. जिमी शेरगिल के साथ उस की ट्यूनिंग काफी अच्छी रही है. जिमी शेरगिल भी जंचा है. मगर फिल्म में उस के मरते ही जैसे फिल्म की भी जान निकल जाती है.

सोनाक्षी सिन्हा के हिस्से में 2 गाने और इतराना भर ही आया है. वह आई और ‘तमंचे पे डिस्को’ किया बस. माही गिल ने एक बार फिर सैक्सी अंदाज में ‘डौंट टच माई बौडी’ गाने पर परफौर्म किया है. विद्युत जामवाल को अभी ऐक्ंिटग सीखनी होगी. वैसे उस ने ऐक्शन सीन अच्छे कर लिए हैं.

फिल्म के संवाद अच्छे हैं, जैसे ‘ब्राह्मण रूठा तो रावण…’ और ‘हम आएंगे तो गरमी बढ़ाएंगे.’ फिल्म में गाने ठूंसे गए लगते हैं. फिर भी 2 गाने ‘तमंचे पे डिस्को’ और ‘डौंट टच माई बौडी’ म्यूजिक लवर्स की हिट लिस्ट में हैं. छायांकन अच्छा है.

आर राजकुमार

‘राउडी राठौड़’ और ‘वांटेड’ जैसी हिट फिल्में देने वाले दक्षिण भारत के निर्देशक प्रभुदेवा ने इस बार लंबे समय से फिल्मों में असफल हो रहे शाहिद कपूर पर अपना दांव खेला है. प्रभुदेवा को उम्मीद थी कि एक बार फिर वह जीत की हैट्रिक बनाएगा मगर अफसोस, प्रभुदेवा का यह लंगड़ा घोड़ा फिल्म ‘आर राजकुमार’ में भाग नहीं सका है.

शाहिद कपूर ने इस फिल्म में जम कर डांस किए हैं. सुपरहीरो बनने की कोशिश की है, खूब ऐक्शन किया है, हीरोइन को पटाने के लिए छिछोरी हरकतें की हैं, पर वह जम नहीं पाया है. फिल्म में उस का लुक एक फटीचर, दढि़यल, पतलेदुबले, मरियल से लड़के का है. उसे इतना नाटकीय दिखाया गया है कि वह अकेले ही 100-100 गुंडों का सफाया कर देता है, बारबार मरणासन्न हो कर भी उठ खड़ा होता है और एक ही घूंसे से विलेन को मार डालता है.

प्रभुदेवा ने इस फिल्म को 70-80 के दशक की फिल्मों जैसा बनाया है. मनमोहन देसाई ने इस तरह की फिल्में खूब बनाई हैं. फिल्म की कहानी, पटकथा खुद प्रभुदेवा ने लिखी है. कहानी का आलम तो यह है कि आप ढूंढ़ते रह जाओगे कि कहानी है क्या. फिर भी हम आप को बता देते हैं. राजकुमार उर्फ रोमियो (शाहिद कपूर) धरतीपुर नाम के एक काल्पनिक गांव में आता है, जहां शिवराज (सोनू सूद) और परमार (आशीष विद्यार्थी) अफीम की खेती करते हैं और उस की तस्करी करते हैं. रोमियो शिवराज का माल लुटने से बचा कर उस का विश्वासपात्र बन जाता है. एक दिन रोमियो, परमार की भतीजी चंदा (सोनाक्षी सिन्हा) को देखता है तो उस पर लट्टू हो जाता है. दोनों में प्यार हो जाता है. इधर शिवराज चंदा के साथ शादी करने के लिए परमार से हाथ मिला लेता है. अब शिवराज और रोमियो के बीच दुश्मनी हो जाती है. शिवराज के गुंडे रोमियो को मार डालना चाहते हैं परंतु रोमियो अकेले ही शिवराज और उस के गुंडों को मार कर चंदा का हाथ थाम लेता है.

फिल्म की विशेषता है इस के डांस और गाने. प्रभुदेवा खुद भी डांस डायरैक्टर हैं. उन्होंने पूरा ध्यान डांस और गानों पर दिया है. ‘एबीसी पढ़ ली बहुत अब करूंगी तेरे साथ गंदी बात…गंदी बात’, ‘साड़ी के फौल का कभी मैच किया रे’ गीत काफी अच्छे बन पड़े हैं. एक गाने में विलेन सोनू सूद भी खूब नाचा है. प्रीतम चक्रवर्ती ने अच्छा म्यूजिक दिया है.

प्रभुदेवा ने ऐक्शन पर भी काफी ध्यान दिया है. उन्होंने इस फिल्म में वही मसाला डाला है जो ‘राउडी राठौड़’ में डाला था. इस फिल्म से यह तो साफ हो गया है कि शाहिद कपूर केवल अपने कंधे के सहारे किसी फिल्म को खींच नहीं सकता. सोनाक्षी सिन्हा ने वही सब किया है जो वह ‘राउडी राठौड़’ में कर चुकी है. इस बार उस ने अपने पिता वाले डायलौग ‘खामोश’ को दोहराया है.

 

क्लब 60

जिंदगी में अगर कोई ट्रेजेडी हो जाए तो उसे याद करकर के दुखी होने के बजाय जीवन में आगे बढ़ने की कोशिश करनी चाहिए. किसी प्रियजन के बिछुड़ जाने के बाद बजाय उदास रहने और डिप्रैशन ओढ़ लेने के इंसान को सहज हो जाना चाहिए. जाने वाला तो चला गया, उस के साथ आप की जिंदगी खत्म नहीं हो जाती. जीवन तो चलता रहता है. यही संदेश देती है फिल्म ‘क्लब 60’.

60 साल या उस से ज्यादा उम्र के लोगों के जीवन पर बनी इस फिल्म में कमर्शियल ऐंगल नहीं है, फिर भी यह दर्शकों को काफी हद तक बांधे रखती है. निर्देशक ने फिल्म में संतुलन बनाए रखा है. एक तरफ तो उस ने प्रमुख किरदारों के जीवन की त्रासदी को दिखाया है, दूसरी तरफ क्लब में रोजाना मिलते, टैनिस खेलते 5 ऐसे 60 साल के दोस्तों को दिखाया है जो न सिर्फ क्लब में खेलने आते हैं वरन आपस में हंसीमजाक भी करते हैं, एकदूसरे के सुखदुख में भागीदार भी बनते हैं. उन सब की अपनीअपनी त्रासदी है, मगर वे बीते कल को भूल कर आज में जीते हैं. वे एकदूसरे को छेड़ते हैं, एकदूसरे से झगड़ते हैं. सबों के जीवन में गम होते हुए भी वे गमों से दूर हैं.

‘क्लब 60’ शहरी जीवन की फिल्म है और जीवन के प्रति पौजिटिव नजरिया दर्शाती है. इस तरह की अच्छी फिल्में यदाकदा ही बनती हैं. निर्देशक ने अपनी बात खूबसूरती से कही है.

इस फिल्म की कहानी एक कपल 60 वर्षीय डा. तारिक शेख (फारूक शेख) और 52 वर्षीय डा. सायरा शेख (सारिका) से शुरू होती है. उन का युवा बेटा इकबाल शेख अमेरिका में पढ़ने जाता है. वहां एक सिरफिरे द्वारा की गई गोलीबारी में उस की मौत हो जाती है. तारिक और सारिका पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ता है. डिप्रैशन में आ कर तारिक अपनी जान देने की कोशिश करता है. तभी उन की जिंदगी में उन्हीं की बिल्डिंग में रहने वाला मनूभाई शाह (रघुबीर यादव) आता है. वह बिन बुलाए मेहमान की तरह आता है और तारिक व सायरा की जिंदगी में हलचल मचा जाता है. वह तारिक को ‘क्लब 60’ जौइन करने को कहता है.

क्लब 60 में मनूभाई शाह के कुछ और दोस्त भी हैं. एक है जय मनसुखानी (सतीश कौशिक). उस का बेटा अपनी पत्नी व बेटे के साथ अमीर ससुराल में घरजंवाई बन कर रहता है. दूसरा है जफर भाई (टीनू आनंद). उस की बीवी व बेटा उसे अकेला छोड़ कर अमेरिका जा बसे हैं. एक मिलिट्री से रिटायर्ड ढिल्लन (शरत सक्सेना) है. उस की बीवी उसे छोड़ कर प्रेमी के साथ चली गई है. एक रिटायर्ड इनकम टैक्स अफसर मिस्टर सिन्हा है जिस की पत्नी हर वक्त व्हीलचेयर पर बैठी रहती है और बेटे की मौत हो चुकी है.

मनूभाई डा. तारिक को क्लब का मैंबर बनवा कर रोजाना उसे क्लब लाता है. धीरेधीरे डा. तारिक में जीने की ललक पैदा होने लगती है और वह बेटे का गम भुला कर उन्हीं दोस्तों में रमने लगता है. अचानक एक दिन मनू भाई शाह को अटैक पड़ता है. उसे बे्रन हेमरेज हो जाता है. डा. सायरा अपने पति को मनू भाई शाह का औपरेशन करने को कहती है. वह उस में आत्मविश्वास पैदा करती है. डा. तारिक औपरेशन करते हैं और मनूभाई शाह बच जाता है.

इन सभी किरदारों को एकसूत्र में बांधने का काम मनूभाई शाह के किरदार ने किया है. इस किरदार की भूमिका में रघुबीर यादव ने कमाल की ऐक्ंिटग की है. निर्देशक ने उसे जिंदादिल इंसान दिखाया है जो मौका मिलने पर किसी से भी फ्लर्ट कर लेता है. उस की टीशर्ट्स पर ‘सैक्सी’ लिखा रहता है. यहां तक कि वह अपने बिस्तर में एक कौलगर्ल से मजे भी लेता है. वह अपने दुख को भुला चुका है. उस के परिवार की एक प्लेन दुर्घटना में मौत हो चुकी है. निर्देशक को कम से कम मनूभाई शाह के एक कौलगर्ल के साथ बैडरूम सीन से बचना चाहिए था.

निर्देशक ने हर कलाकार से बेहतर काम लिया है. फारूक शेख और सारिका का काम सब से अच्छा है. फिल्म के संवाद अच्छे हैं. एक किरदार जफर भाई से गवाया गया गीत ‘काश हम तुम मिले नहीं होते’ अच्छा बन पड़ा है. फिल्म का छायांकन अच्छा है.

 

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