बदबूदार टायलेट में घुसते ही नाक सिकोड़ कर उस पर हाथ रख कर बैठना पड़ता है. साथ ही हर दिन टायलेट में सैकड़ों लीटर पानी बरबाद हो जाता है, ताकि टायलेट में बदबू न आए. आईआईटी दिल्ली के प्रोफेसर औैर उन के छात्र ने बिना बदबू वाली टायलेट बनाने के खयाल को जन्म दिया. बस, फिर क्या था, कुछ समय की मेहनत के बाद वे ऐसा टायलेट बनाने में कामयाब रहे. मेक इन इंडिया कार्यक्रम के दौरान पैन आईआईटी पेवेलियन में स्वच्छ भारत और मेक इन इंडिया जैसी मुहिम पर जोर देने वाले इस टायलेट को पेश किया गया.

ऐसे टायलेट के इस्तेमाल से हर दिन देशभर के हजारों टायलेटों में लाखों लीटर पानी की बचत हो सकती है. फिलहाल सौ से ज्यादा संस्थाओं के सहयोग से देशभर में कईर् जगहों पर इस टेक्नोलोजी पर बने टायलेट इस्तेमाल में लाए जा रहे हैं. मुंबई में भी कई जगहों पर ये टायलेट कामयाबी के साथ काम कर रहे हैं. प्रोफेसर विजय राघवन चेरियार और उन के छात्र उत्तम बनर्जी ने एक कंपनी बना कर इस की मैन्यूफैक्चरिंग शुरू की. प्रोफेसर विजय राघवन का कहना है कि वे टायलेट में जाने वाले पानी को बरबाद होने से बचाना चाहते हैं. साथ ही वे मलमूत्र से खाद और दूसरी उपयोगी चीजें तैयार करना चाहते हैं.

सामान्य टायलेट में पेशाब करने के बाद फ्लश के जरीए बड़ी मात्रा में पानी यों ही बरबाद हो जाता है. ऐसा मुख्य तौर पर सफाई और बदबू से बचने के लिए किया जाता है. इस टायलेट में पेशाब करने के बाद उस के नीचे जाने पर एक विशेष प्रकार का मेकैनिज्म ऊपर तैरने लगता है औैर फिर पेशाब निकल जाने के बाद उस एरिया को वही मेकैनिज्म ब्लौक कर देता है, जिस से उस में से किसी तरह की बदबू बाहर नहीं आ पाती है. ऐसे में इस तरह के टायलेट न केवल सूखे से प्रभावित इलाकों में, बल्कि भविष्य में देशभर में पानी की परेशानी को देखते हुए काफी उपयोगी साबित हो सकते हैं. प्रोफेसर विजय राघवन चेरियार का कहना है कि रेन वाटर हार्वेस्टिंग की तर्ज पर वे मलमूत्र को भी दोबारा इस्तेमाल में लाना चाहते हैं. वैसे भी पानी के साथ मिलने के बाद मूत्र बेकार हो जाता है. अगर इसे पहले ही प्रोसेस किया जाए, तो यह इस्तेमाल में लाया जा सकता है. साथ ही मल की प्रोसेसिंग के जरीए खाद भी बनाई जा सकती है.

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