इंटरनैट की दुनिया अचानक इस बात को ले कर फिक्रमंद दिखने लगी है कि आखिर सूचना की यह आधुनिक तकनीक अपने हर रूपरंग में सिर्फ अमीरों तक सीमित क्यों है, क्यों इस का कारोबार सिर्फ पैसे वालों तक सिमटा हुआ है, क्यों इस पर मनोरंजन और सहूलियतें अमीरों को मिल रही हैं और क्यों वही इस के सब से ज्यादा फायदे उठा पा रहे हैं? इसी चिंता के साथ सोशल नैटवर्किंग वैबसाइट फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग ने अक्तूबर, 2015 में भारत का दौरा किया. उस दौरान गरीबों को इंटरनैट से जोड़ने के उद्देश्य से काम कर रहे संगठन इंटरनैटडौटओआरजी (द्बठ्ठह्लद्गह्म्ठ्ठद्गह्ल.शह्म्द्द) के जरिए दुनिया की दोतिहाई आबादी को इंटरनैट का फायदा दिलाने का संकल्प जताते हुए जुकरबर्ग ने इंटरनैट को मौलिक अधिकार बनाए जाने की वकालत भी की. जब देश में इस योजना का विरोध किया गया तो उन्होंने इस योजना का नाम बदल कर ‘फ्री बेसिक्स’ रख दिया.

क्या है फ्री बेसिक्स

असल में यह इंटरनैटडौटओआरजी के नाम से पहले लाई गई वही योजना है, जिस के बारे में वर्ष 2015 में प्रचारित किया गया था कि इस की मदद से लाखों लोगों को इंटरनैट के मुफ्त इस्तेमाल की सुविधा मिल सकेगी. देश में नैट तटस्थता यानी नैट न्यूट्रैलिटी की मांग उठने के साथ इस योजना का विरोध होने लगा क्योंकि इस में जिन लोगों को मुफ्त इंटरनैट देने की पहल की जा रही थी, उन्हें बहुत सीमित विकल्प दिए जा रहे थे. विरोध बढ़ता देख मार्क जुकरबर्ग ने योजना का नाम बदल कर ‘फ्री बेसिक्स इंटरनैट सर्विस’ कर दिया और इस के लिए रिलायंस कम्युनिकेशंस के प्लेटफौर्म पर कुछ समय पहले एक एप्लिकेशन लौंच कर दिया. लेकिन नैट न्यूट्रैलिटी पर कोई आम राय नहीं बन पाने की स्थिति में दूरसंचार नियामक प्राधिकरण यानी ट्राई ने इस सेवा पर यह कहते हुए रोक लगा दी कि जब तक इस संबंध में जारी किए गए कंसल्टेशन पेपर पर आम लोगों व टैलीकौम कंपनियों के जवाब नहीं मिल जाते, तब तक ऐसी योजना लागू नहीं की जा सकती.

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