चौबेजी पूजा से उठे ही थे, खबर मिली कि ठकुराइन अम्मा का देहावसान हो गया है. खबर सुनते ही अचानक उन के चमकते गालों की लालिमा और सुर्ख हो गई. होंठों पर मुसकान भी उभर आई. पत्नी पास ही खड़ी थी. मुसकराते हुए उस से पूछा, ‘‘अजी सुनती हो, ठकुराइन अम्मा नहीं रहीं, अच्छा मौका मिला है. तुम्हें जो चाहिए बता दो. फिर मत कहना कि कोई इच्छा अधूरी रह गई.’’

पत्नी खुशीखुशी कंगन, साड़ी जैसी अनगिनत मुरादें बताने लगी लेकिन चौबेजी को जल्दी थी इसलिए ठकुराइन की हवेली की तरफ दौड़ लिए. रास्ते में पूछताछ भी करते गए कि कब कैसे क्या हुआ है. जब वे हवेली पहुंचे तब तक वहां भारी भीड़ जमा हो चुकी थी. उन्हें अपनी लेटलतीफी पर गहरा अफसोस हुआ. वहां दर्जनभर पंडेपुजारी उन से पूर्व ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुके थे. वैसे तो ठकुराइन उन्हीं की जजमान थीं, लेकिन अवसर कौन चूकता है. चील, कौए, गिद्ध जैसे शवों पर टूट पड़ते हैं ठीक वैसा ही नजारा इस समय हवेली में भी था.

ठकुराइन की उम्र लगभग 75-80 साल की रही होगी. भरापूरा परिवार, सम्मानित, धनाढ्य खानदान, खुद उन का समाज में खूब रुतबा था. खैर, बिना समय गंवाए चौबेजी ने मोरचा संभाला और ठकुराइन के बड़े बेटे केदार सिंह से मुखातिब हुए. कुरते की जेब से पंचांग निकाल कर, तुरुप का इक्का उछाला, ‘‘अम्माजी का देहांत कब हुआ है?’’

केदार सिंह ने सुबह का समय बताया तो चौबेजी चिहुंक कर बोले, ‘‘भला हो इस परिवार का,’’ उन के चेहरे पर चिंता और घबराहट के सधे हुए भाव स्पष्ट नजर आने लगे.

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