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समय की एक खूबसूरत विशेषता है कि वह सब को पुराना करता जाता है. हर नया एक दिन पुराना होना होता है. प्रेम भी पुराना होता है, लोग भी. कई तो पुराने होने के साथ परिपक्व होते है, कई मानो में बहुत समृद्ध होते हैं जैसे पुराने चावल, शराब, प्रेम, यादें. प्रेम भी पुराना होने पर अपनी असलियत पर आ जाता है. आकर्षण से जुड़ा प्रेम पुराना होते ही लड़खड़ा जाता है, गिर पड़ता है.

बलवंत, अनुराधा भी पुराने होने लगे तो एकदूसरे की आदतें, जो कभी आकर्षण के तहत स्वीकार कर रखी थीं, अब चुभने लगी थीं. अनुराधा का उतावलापन बलवंत के लिए खीझ बनने लगा. कभी अपनी अनु का यह उतावलापन सिरमाथे पर ले कर घूमते थे बलवंत. और आज, ‘थोड़ी शांत नहीं रह सकती. हमेशा घोड़े पर ही सवार क्यों रहती हो?’ तक आ गया था. इधर बलवंत हर काम अपने ढंग से करने की आदत कभी भी कहीं किसी काम को हाथ में लेना और फिर छोड़ देना... और तब करना जब मन करे. यह सब अनुराधा के लिए भी असहनीय होता, "तुम एक काम ठीक से नहीं कर सकते. चार काम पिछले ही पड़े हैं. कुछ तो करो, 2 घंटे से बस बिस्तर पर पड़े हो." छोटीछोटी तकरारें बढ़ती जाती हैं यदि स्वीकार्यता में परिपक्वता की कमी हो. फिर दौड़ शुरू होती है सामने वाले को अपने जैसा बनाने की. जरा भी अपने मन का नहीं हुआ तो शिकायतें शुरू. वास्तव में जिस के साथ भी हम पुराने होते रहते हैं, हमारे असली चेहरे सामने आते जाते हैं, मुखौटे उतरते जाते हैं." ...तुम तो कहते थे मैं शराब को हाथ नहीं लगाता. फिर यह क्या है?" अनुराधा थोड़े गुस्से में बलवंत से पूछती है. बलवंत अपने असली स्वरूप में आ कर बस टाल जाता. इधर अनुराधा को देर तक जागने की आदत और बलवंत अपना पैग लगा कर जल्दी सोने का आदी. इसी बात पर तकरार हो जाती और कई दिन अबोला रहता. यह स्कूटर पर स्कूल जाने तक भी बना रहता. जगजीत सिंह और मुकेश भी बंट गए थे दोनों में. एक को जगजीत सिंह नहीं भाते तो दूसरे को मुकेश. शुरूशुरू में तो खुमारी में सब जायज था. दोनों के बीच ऊंची आवाजों में झगड़े होने लगे. कई बार आवाजें ऊंची हो जातीं तो बाहर भी सुनाई देतीं.

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