‘मां‘ कितना प्यारा, कितना मीठा है यह शब्द. शायद विश्वभर में सब शब्दकोषों में सब से मीठा. कौन स्त्री नहीं चाहती मां बनना. मैं भी चाहती थी. जितनी ब्याही सहेलियां थीं, सब मुझे मां बनने के सुख बयान करती रहतीं - ”प्रसव पीड़ा का भी अपना आनंद है. सहोगी तो समझोगी.

मन रोमाचिंत हो उठा, जब कान में भनक पड़ी कि मौसी एक रिश्ता ले कर आई हैं. पर बात वहां नहीं बनी, और कही भी नहीं. बहुत वर देखे, पर किस्मत में विवाह नहीं था शायद.

मैं इतना तो नहीं, जितना मेरे मांबाप मायूस थे. उन की तलाश नाकाम होती नजर आने लगी. हताश हो गए थे वे. तीनतीन बेटियां. तीनों ही ब्याहनेलायक और एक दिन अचानक जैसे रिश्ता सीधा स्वर्ग से ही आया हो. सुंदर, लंबा, अच्छे खानदान का. शादी सीधीसादी व बिना दानदहेज. लंगड़ा क्या चाहे दो बैसाखियां. मांबाप ने झट हां कर दी.

और मैं मां बन गई. पत्नी बनने से पहले. रिश्ता एक विधुर से आया था. 2 बच्चों के पिता थे. 3 साल पहले एक दुर्घटना में उन की पत्नी का स्वर्गवास हुआ था.

एक बार तो चाहा कि मना कर दूं, पर मांबाप की मूक प्रार्थना, और बहनों का विवाह मेरे कारण न हो, मैं गवारा न कर सकी और एक बलि के बकरे की तरह बैठ गई विवाह मंड़प पर.

विवाह के दिन खूब छेड़छाड़ हुई. कोई मुबारक दे रहा था अमीर घर की, तो कोई अनुभवी पति की, तो कोई बनेबनाए परिवार की. मैं बन गई एक अमीर राजन श्रीवास्तव की पत्नी.

ऐसा देख कई लोगों को रश्क भी हुआ. बढ़ती उम्र में भी मुझे इतना अच्छा घरवर मिल गया. सौतेले बच्चे हैं तो क्या...? पति तो ज्यादा उम्र के नहीं. पैंतालिस साल के आसपास.

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