मुंबई रूट के एक व्यस्त रेलवे जंक्शन मनमाड का दृश्य. मैंअपनी पत्नी के साथ ‘पुष्पक ऐक्सप्रैस’ ट्रेन का इंतजार कर रहा हूं. मैं शिरडी से सड़कमार्ग से लौटते समय यहां ट्रेन आने के डेढ़ घंटे पहले आ पहुंचा हूं. अब इंतजार के अलावा कोई और चारा नहीं होने से वातानुकूलित वेटिंगरूम के एक कक्ष में आ कर बैठ गया हूं. 10-15 यात्री यहां पहले से इंतजार करते बैठे हैं, चेहरे मायूस हैं. इंतजार करते लोगों के चेहरे मायूस हो ही जाते हैं. सोच रहा हूं कि मुझे भी मेरी टे्रन लेट आ कर मायूस कर सकती है. एसी का कहीं पता नहीं है. मेरी नजर सामने की दीवार पर लगे ‘इनक्रैडिबल इंडिया’ के पोस्टर पर चली गई. कितना आकर्षक लगता है पोस्टर में इंडिया? ‘इनक्रैडिबल’ के बाद और ‘इंडिया’ के पहले ‘आई’ का परिवर्तित रूप ऊपर मुगदर व नीचे एक गोलबिंदु जैसा और भी आकर्षक है. मैं फ्रेम किए हुए दीवार पर लगे पोस्टर को ध्यान से देख रहा हूं. वाराणसी के एक घाट का आकर्षक, सुहाना व चकाचौंध भरा रात्रिकालीन दृश्य है. मैं ‘अतुल्य भारत’ के इस दृश्य को एकटक देख रहा हूं. जबकि मेरे सामने की ओर कुरसियों पर बैठी 3 महिलाओं में से एक मुझे देख रही है. किसी चीज को एकटक देखने में भी समस्या हो सकती है. मेरा ध्यान तो अतुल्य भारत पर है लेकिन उस का मेरे पर.

मुझे अचानक ध्यान आया, नए कानून के हिसाब से घूरना एक अपराध है लेकिन यहां तो महिला मुझे घूर रही है और महिला भी यदि कोई सुंदर युवती होती तो मुझे भी अच्छा लगता. वैसे, सारे शादीशुदा पुरुष यही सोचते होंगे. लेकिन यह तो कोई आंटी से दादी की वय में बढ़ रही महिला थी. अब मुझे ध्यान आया कि वह सोच रही है कि मैं उसे क्यों एकटक घूर रहा हूं. वह तो मैं विश्वस्त हूं कि पत्नी बाजू में बैठी है तो मेरे चालचलन पर कोई यदि आक्षेप करेगा तो पत्नी शेरनी की तरह मेरे सपोर्ट में गरज सकती है. मतलब, कोई खतरा नहीं है. लेकिन उस की आखें शायद जैसे कुछ कहना चाह रही हों कि ओ मिस्टर, क्या बात है? इसी समय मेरे मुंह से निकल गया कि मैं आप को नहीं ‘इनक्रैडिबल इंडिया’ को देख रहा हूं. मेरे यह कहते ही उस ने भी सामने के पोस्टर की ओर देखा. अब उस को शायद समझ में आया कि सभी पुरुष सारे समय महिलाओं को ही नहीं घूरते हैं, और भी काम करते हैं. यदि मैं अकेला होता तो भी क्या मेरी सोच ऐसी कंफर्टेबल रहती, मिनटों में यह शोचनीय हो सकती है?

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