राधिका बैड के सामने खुलने वाली खिड़की से दिखाई देने वाले उस बंद गेट को मायूसी से देख रही थीं जहां से उन के बेटे उन्हें यहां परायों की भीड़ में शामिल करवा गए थे. उन का चुप रहना, खाने की प्लेट को बिन छुए सरका देना, बैड पर पड़ेपड़े कमरे की छत को देखते रहना जैसे यहां रहने वालों के लिए खास माने नहीं रखता था. 5 दिन से राधिका ऐसी ही गुमसुम थीं, कभी उठ कर बस नहाधो लेतीं, कभी चुपचाप खड़ी बाहर देखती रहतीं. किसी ने उन से बात करने की कोशिश की भी तो उन्होंने मुंह फेर लिया था. किसी ने उन्हें आग्रहपूर्वक कुछ खिलाने की कोशिश की भी तो यह सबकुछ राधिका को सहज नहीं कर पाया था. छठे दिन वे चुपचाप लेटी छत निहार रही थीं कि जैसे कमरे के शांत वातावरण में उत्साहित स्वर गूंज उठा, ‘‘राधिका, तुम्हें रंगोली बनानी आती है? कुछ ही दिनों बाद दीवाली है, सारा काम पड़ा है.’’

राधिका चुप रहीं.

नंदिनी हंसीं, ‘‘गूंगी हो क्या?’’

राधिका करवट बदल कर लेट गईं. उन का जरा भी मन नहीं हुआ जवाब देने का. फिर नंदिनी उन्हें कंधे से सीधा करती हुई बोलीं, ‘‘अरे सौरी, मैं ने अपना परिचय तो दिया ही नहीं. मैं नंदिनी, तुम्हारी रूममेट, यह दूसरा बैड मेरा ही है.’’ राधिका ने अब भी कुछ न कहा तो नंदिनी उन्हें ध्यान से देखते हुए अपना बैड और सामान ठीक करने लगीं. सुबह हुई, राधिका ने नंदिनी पर जैसे ही नजर डाली, नंदिनी ने कहा, ‘‘गुडमौर्निंग राधिका, आंखों से लग रहा है रात को सोईं नहीं ठीक से.’’ राधिका ने जवाब तो नहीं दिया, आंखें भरती चली गईं, बस जैसे खुद से मन ही मन बात की, कैसे आए नींद, जीवन भर पति और दोनों बेटों के आगेपीछे घूमती रही, पति अचानक साइलैंट हार्टअटैक में चले गए तो दोनों बेटों की गृहस्थी के कामों में लगा दिया खुद को, पोतेपोतियों, भरेपूरे परिवार की मालकिन आज मैं यहां पड़ी हूं, इन परायों के बीच, इस वृद्धाश्रम में. क्या गलती की मैं ने, विदेश जाते हुए दोनों ने घर बेच कर मुझे यहां छोड़ दिया, वीजा की समस्या का यही हल ढूंढ़ा उन्होंने, नहीं, वीजा का बहाना था. एक बार भी नहीं सोचा मैं कैसे रहूंगी परायों के बीच.

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