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‘‘तो ठीक है. जो बाकी है, वह भी कर के अपनी इच्छा पूरी कर लो. मेरे यहां रहने से परेशानी है तो मैं फिर से चली जाती हूं. त्रिशा को इस समय मेरी बहुत जरूरत है. मैं तो तुम्हारे लिए भागी आई हूं. परंतु तुम तो दूसरी दुनिया बसा चुके हो. मैं बेकार में अपना माथा खाली कर रही हूं. व्यर्थ का तमाशा मत बनाओ. मेरे सामने से हट जाओ.’’ घर में सन्नाटा छाया हुआ था. पार्वती की सिसकियों की आवाज और सामान समेटने की आवाज बीचबीच में आ जाती थी. घर उजड़ रहा था, रीना दुखी थी. उसे पार्वती से ज्यादा रोमेश दोषी लग रहे थे. वह मन ही मन सोच रही थी कि जब अपना सिक्का ही खोटा हो तो दूसरे को क्यों दोष दे. कुछ भी हो, पार्वती को यहां से हटाना आवश्यक था. वह उस घड़ी को कोस रही थी जब उस ने पार्वती को अपने घर पर काम करने के लिए रखा था. लगभग 20 वर्ष पहले सुमित्राजी ने पार्वती को उस के पास काम के लिए भेजा था. उस की कामवाली भागवती हमेशा के लिए गांव चली गई थी. 2 बेटियां, पति और बूढ़ी अम्माजी के सारे काम करतेकरते उस की हालत खराब थी. उसे नई कामवाली की सख्त जरूरत थी. सुमित्राजी ने कह दिया था, ‘पार्वती नई है, इसलिए निगाह रखना.’ वह अतीत में खो गई थी. पार्वती का जीवन तो उस के लिए खुली किताब है.

21-22 वर्ष की पार्वती का रंग दूध की तरह सफेद था, गोल चेहरा, उस की बड़ीबड़ी आंखों में निरीहता थी. अपने में सिकुड़ीसिमटी हुई एक बच्चे की उंगली पकड़े हुए तो दूसरे को गोद में उठाए हुए कातर निगाहों से काम की याचना कर रही थी. उसे काम की सख्त जरूरत थी. उस के माथे के जख्म को देख रीना पूछ बैठी थी, ‘ये चोट कैसे लगी तुम्हारे?’ पार्वती धीरे से बोली थी, ‘मेरे आदमी ने हंसिया फेंक कर मारा था, वह माथे को छूता हुआ निकल गया था. उसी से घाव हो गया है.’

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