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पल्लवी के रोमरोम में अल्हड़ता व नासमझी विद्यमान थी. उस के रैकेट थामने वाले हाथ गृहस्थी की बागडोर नहीं संभाल पाए. उस की रुचि रसोईघर में बैठ कर व्यंजन बनाने में नहीं बल्कि बनठन कर बाजारों, क्लबों में घूमने व अपने रूप की प्रशंसा सुन कर गर्वित होने में थी.

उसे तरुण से भी लगाव नहीं था. वह तरुण की ओर से लापरवा बनी गृहस्थी को बंधन मान कर कुड़मुड़ाती रहती कि उस की इच्छा तो सफल खिलाड़ी बनने की थी, सेठानी बनने की नहीं. मांबाप ने नाहक ही विवाह के बंधन में बांध दिया.

जब कभी नौकर, नौकरानी छुट्टी कर लेते तो पल्लवी को एक वक्त का भोजन बनाना भी भारी पड़ जाता. सब्जी काटती तो चाकू से उंगलियों में जख्म हो जाते. उबलती सब्जियों के भगौने हाथों से छूट पड़ते. खौलती चाय हाथपैरों पर आ पड़ती. 2 बार उस की लापरवाही से गैस सिलैंडर में आग लगतेलगते बची थी.

पल्लवी की नासमझी के लिए मेरे मांबाप अधिक दोषी थे, जिन्होंने उसे गृहस्थी का काम सिखलाए बगैर उस का विवाह कर डाला था. उस की मौत का कारण उसी की नासमझी से लगी आग थी. पर मेरे मांबाप को यह सब कौन समझा सकता था, जो बदले की भावना से अंधे हुए बैठे थे.

हवालात में बंद तरुण, उस के मांबाप, भोजन बनाने वाली महाराजिन को पुलिस वालों ने कचहरी में जज के सामने पेश किया तो तरुण के ननिहाल वाले बौखला उठे.

तरुण की मां के दोनों भाई ऊंचे पद पर नौकरी करने वाले संपन्न, सम्मानित अफसर थे. बहन को अपराधियों के कठघरे में खड़ी देख कर उन के चेहरों पर कालिमा छा गई थी. दोनों भाई बहनबहनोई की जमानत कराने हेतु हाईकोर्ट के चक्कर लगा रहे थे, पर सफलता कोसों दूर थी.

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