वह किशोर भी आम किशोरों जैसा ही था. सारे काम वह भी वैसे ही करता था जैसे उस की उम्र के होशियार किशोर करते हैं, लेकिन वह हर काम थोड़ा जरूरत से ज्यादा कर दिया करता था. यदि अन्य किशोर नहाने में 7 से 10 मिनट लगाते तो वह 14 से 20 मिनट लगाता. शाम को स्कूल से आने के बाद 2 घंटे पढ़ने के लिए कहा जाए तो वह 4 घंटे से पहले उठने का नाम नहीं लेता. फुटबौल 1 घंटा खेलने के बजाय वह 2 घंटे तक खेलने का कायल था. मतलब यह कि हर काम जरूरत से ज्यादा किया करता था.

जब वह लिखने बैठता तो पूरी कौपी थोड़ी ही देर में भर डालता. अब खाली कौपियां इतनी ज्यादा तो होती नहीं थीं कि बस, कौपी पर कौपी मिलती जाए और वह उसे भरता चला जाए. आखिर हर चीज की कोई हद होती है, तो फिर वह करता क्या? घर की दीवारों, फर्श, स्कूल की दीवारों, कमरे के परदों, गरज यह कि जो कुछ भी उसे सामने दिखता उसी पर लिखना शुरू कर देता. कभीकभी अगर कोई चीज उसे लिखने के लिए नजर नहीं आती तो वह अपने हाथपैरों पर ही कुछ न कुछ लिखना शुरू कर देता. सब को उस की जो बात सब से बुरी लगती, वह थी कोयले से लिखलिख कर दीवारों को खराब करना. आखिर दीवारों की सफेदी इस तरह खराब होते देख कौन बरदाश्त करेगा, लेकिन वह किशोर क्योंकि पढ़नेलिखने और खेलने में भी होशियार था, इसलिए ये अच्छाइयां दीवारों पर लिखने की उस की बुरी आदत को दबा देती थीं. आप ने यह तो सुना ही होगा कि दूध देने वाले पशु की लात भी सहनी पड़ती है. यही बात उस किशोर के साथ भी थी.

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