बात सन 1978 की है. शाहबानो नामक एक महिला थीं, जिन के 5 बच्चे थे. 3 तलाक के तहत बिना किसी खास वजह के उन के पति ने उन्हें तलाक दे दिया था. पति द्वारा इस तरह खुद से अलग कर देने के बाद शाहबानो के पास अपने और बच्चों के गुजरबसर करने का कोई जरिया नहीं रहा.

दूसरा कोई चारा न देख शाहबानो ने अदालत से गुहार लगाई कि उसे पति से गुजारे के लिए पैसा दिलाया जाए. यह मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचा. इस सब में 7 साल का लंबा समय गुजर गया.

अंत में सर्वोच्च न्यायालय ने भादंसं की धारा 125 के तहत जो निर्णय लिया, उस के बारे में यह भी कहा कि यह निर्णय हर किसी पर लागू होता है, चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या संप्रदाय का हो. अपने निर्णय के तहत सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिया कि शाहबानो को गुजारे के लिए खर्च दिया जाए. लेकिन इस फैसले का जो स्वागत होना चाहिए था, वह नहीं हुआ.

भारत के रूढि़वादी मुसलमानों ने इस का विरोध करते हुए कहा कि यह निर्णय उन की संस्कृति और विधानों पर अनाधिकार हस्तक्षेप है. इस में उन्हें असुरक्षा का भाव नजर आया. इस निर्णय को ले कर तमाम नेताओं ने भी विरोध प्रदर्शन किए. इस के बाद इस मामले की वजह से मुसलिमों ने आल इंडिया पर्सनल लौ बोर्ड नाम से अपनी एक संस्था बनाई. इस संस्था के कारकुनों ने इस निर्णय के खिलाफ देश के प्रमुख शहरों में आंदोलन करने की धमकी दी.

उन दिनों देश के प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे, जिन्होंने इस बोर्ड के पदाधिकारियों की सभी शर्तें मान लीं. उस समय इस निर्णय को धर्मनिरपेक्षता के एक अहम उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया था. सन 1986 में कांग्रेस (आई) पार्टी ने, जिसे संसद में बहुमत प्राप्त था, इस मुद्दे पर मसौदा तैयार कर के एक कानून बनाया, जिस ने शाहबानो वाले मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को उलट दिया.

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