महिला सशक्तीकरण और महिलाओं की जागरूकता जैसे शब्दों से आमतौर पर एक ही तसवीर दिमाग में बनती है कि महिला पुरुष के अधीन न हो, उसे आजादी मिले और अपने फैसले वह खुद ले, तभी यह माना जा सकता है कि उस ने बराबरी का दरजा हासिल कर लिया है या एक मुकम्मल मुकाम उसे मिल गया है. ऐसी बातें सुनने और सोचने से पुरुष प्रधान समाज के दरकने का एक सुखभर मिलता है जबकि हैरानी इस बात पर होती है कि हर कोई जानता है कि भारतीय परिवेश में यह एक खयालभर है.

वहीं, एक बड़ा फर्क आया है जिस पर आमतौर पर सोचने वालों की नजर नहीं पड़ती. वह फर्क यह है कि पुरुष दूसरी शादी अब पहले जैसे हक, रुतबे और शान से नहीं करता. यह ऐसा बदलाव है जिसे महसूस तो किया जा सकता है लेकिन व्यक्त नहीं किया जा सकता और जिस का सीधा संबंध समाज में औरत की मजबूत होती स्थिति से है. भोपाल के एक 40 वर्षीय इंजीनियर आशुतोष (बदला नाम) का कहना है, ‘‘तब के केंद्रीय मंत्री शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर की मौत की खबर टैलीविजन पर प्रसारित हो रही थी तब मैं पत्नी के साथ टीवी देख रहा था. देर रात जैसे ही न्यूज रीडर ने यह बताना शुरू किया कि यह उन दोनों की ही तीसरी शादी थी तो मैं अचानक असहज हो उठा. इस की वजह मेरी पत्नी ही बेहतर समझ सकती थी और उस ने यह कहते हुए कि ‘क्या ट्रैजिडी वाली न्यूज लगातार देख रहे हो, कुछ और लगाते हैं.’ चैनल बदल दिया.’’ दरअसल, आशुतोष की भी यह दूसरी शादी है जो 12 साल पहले हुई थी. उन की पहली शादी 15 साल पहले हुई थी और शादी के 2 साल बाद ही तलाक हो गया था. पहली पत्नी का कहीं और अफेयर था पर मांबाप के दबाव के चलते वह अपने प्रेमी से शादी नहीं कर पाई थी. शादी की पहली रात ही उस ने खुल कर आशुतोष को सारी बात बता दी थी. पहली ही रात पत्नी के मुंह से ऐसी बात सुन कर आशुतोष को कितना सदमा लगा होगा, यह सहज समझा जा सकता है. वहीं दूसरा सदमा उस वक्त लगा जब पत्नी ने तलाक की मांग यह कहते कर डाली कि जब हम सहज तरीके से साथ नहीं रह सकते तो बेवजह की शादी ढोने से फायदा क्या?

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