ससुराल में नेहा की पहली होली थी, इस कारण घर में खूब रौनक थी. छत पर डीजे लगा था और उस के मायके से उस की बहनों को बुलाया गया था. मस्ती का माहौल होने के चलते सब खूब मस्ती कर रहे थे. नेहा की बहनें अपने जीजू, उन के भैया वगैरा के साथ रंग व पानी से खूब होली खेल रही थीं.

सब को होली खेलते देख नेहा भी खुद को न रोक पाई और मौका मिलते ही अपनी सास व जेठ को रंग लगाते हुए बोली, ‘होली है भई, होली है, बुरा न मानो होली है.’ नेहा की इस शरारत के बाद सब होली के रंग में ऐसे रंगे कि कब दिन के 2 बज गए, पता ही न चला, फिर सब ने मिलबैठ कर लंच किया और पुराने किस्सों को याद कर खूब ठहाके लगाए.

बदलते समय के साथ महिलाएं भी होली की मस्ती का पूरा लुत्फ उठाती हैं और यह कहती हुई कि रंग दे मोहे रंग दे...रंग लगाती हैं और लगवाती भी हैं.

कुछ वर्षों पहले तक रंगों से पुते हुए पुरुष ही दिखते थे लेकिन अब महिलाएं भी दिखने लगी हैं. ‘महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार होता है,’ ऐसी बातों को धता बता कर वे अब होली के रंगों में पूरी तरह खुद को डुबो डालती हैं, ताकि वे पीछे न रहें किसी भी चीज में.

हर किसी संग मस्ती : पहले घरों में अगर महिलाएं होली खेलती भी थीं तो सिर्फ घर की चारदीवारी के भीतर और उस में भी देवरभाभी? के बीच ही. अपनों से बड़ों को रंग लगाना या फिर उन्हें छूना घर की परंपरा के खिलाफ होता था. लेकिन अब नहीं. अब वे जिस तरह से पढ़लिख कर हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं उसी तरह से उन्होंने अपने परिवार, अपने समाज की सोच बदली है.

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