विधवाओं को ले कर समाज हमेशा से दोहरा मापदंड अपनाता रहा है. धर्म के ठेकेदारों ने उन को खुशियों के रंग से महरूम कर दिया है. धर्म की नगरी वृंदावन में भी उन के साथ होता है परंपरागत पाखंड. खुलासा कर रही हैं बुशरा.

एक विधवा की अंतिम सांस निकलते ही अन्य विधवाएं सफाई कर्मचारी को बुलाती हैं. सफाई कर्मचारी आ कर शव को कई टुकड़ों में काट कर उसे बोरी या पौलिथीन बैग में भर कर कहीं फेंक आता है, क्योंकि साबुत शव को बोरे में भरना मुश्किल होता है...चौंकिए मत! कड़वा है, पर है सत्य. यह इसी सभ्य समाज की एक कड़वी हकीकत और दरिंदगी है जहां स्त्री को पूजनीय तो बताया जाता है लेकिन उस के साथ जानवरों से बदतर सुलूक होता है. सभ्य कहलाने वाले समाज के सियाह पहलू और बदरंग तसवीर को करीब से देखना है तो एक बार वृंदावन, मथुरा और बनारस (काशी) के विधवा आश्रमों का रुख कीजिए, जहां स्त्री जीवन की दर्दनाक दास्तानें अंधेरी कोठरियों की काली दीवारों पर चस्पां मिलेंगी. चलतीफिरती इन ठटरियों को न तो सम्मान का जीवन नसीब है और न सुकून की मौत.

नारकीय जीवन जी रही वृंदावन की इन विधवाओं के शव को कफन और चिता की आग भी मुहैया नहीं करवाई जाती है. दलाल इन को मिलने वाली सरकारी सुविधाएं बीच में ही हड़प कर जाते हैं.

नजीजतन, इन के शवों को जलाने के स्थान पर टुकड़ों में काट कर बोरी में भर कर इसलिए फेंका जाता है क्योंकि इन असहाय और अनाथ महिलाओं के मरने के बाद उन के अंतिम संस्कार के लिए वित्तीय प्रावधान नहीं है और यदि जो विधवाएं अपने अंतिम संस्कार के लिए कुछ पैसा जोड़ कर सफाईकर्मियों के पास जमा करा देती हैं उसे गटक लिया जाता है. यह है इस धर्म की नगरी का एक असली चेहरा जिसे देख कर भी हम आंखें मूंद लेते हैं.

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