सन 1966 की एक सुबह कोलकाता के प्रसिद्ध सेंट जेवियर्स कालेज के प्रिंसिपल के कक्ष के बाहर खड़े 16 वर्षीय, दुबलेपतले किशोर ने धीरे से दरवाजे पर दस्तक दी और सहमते हुए अंदर आने की अनुमति मांगी. प्रिंसिपल ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और फिर अंदर आने को कहा. सकुचाते हुए लड़के ने बताया कि वह यहां बीकौम में ऐडमिशन पाने की मंशा से आया था. वह धीरेधीरे, हिचकिचाते हुए अपनी बात कहे जा रहा था. वह अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि प्रिंसिपल ने उसे बीच में टोक कर कहा कि ऐडमिशन ज्यूरी पहले ही तुम्हें ऐडमिशन न देने का फैसला कर चुकी है. मैं इस मामले में कुछ नहीं कर सकता.

लेकिन वह छात्र जानता था कि ज्यूरी ने उसे ऐडमिशन न देने का फैसला प्रिंसिपल के कहने पर ही लिया था. सेंट जेवियर्स कालेज देश के सब से प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों में शुमार है. वहां अमूमन अमीर घरों के महंगे स्कूलों में पढ़ चुके, फर्राटेदार अंगरेजी बोलने वाले छात्रों को ही ऐडमिशन मिलता था. सादुलपुर, राजस्थान का रहने वाला यह छात्र कोलकाता के चितपुर इलाके में किराए के घर में रहता था. यह छात्र फर्राटेदार तो क्या हलकीफुलकी अंगरेजी भी नहीं बोल पाता था, क्योंकि पिछले 8 वर्ष से वह श्री दौलतराम नोपानी नामक स्कूल में हिंदी माध्यम से पढ़ाई कर रहा था. इसीलिए सेंट जेवियर्स कालेज का प्रिंसिपल उसे प्रवेश देने से कतरा रहा था.

उस के बाकी फ्रेंड्स को तो अन्य कालेजों में प्रवेश मिल चुका था, लेकिन उस पर तो सेंट जेवियर्स कालेज में दाखिला लेने की धुन सवार थी. प्रिंसिपल के दरवाजे पर दस्तक देने का यह क्रम अगले कई दिनों तक चलता रहा. आखिरकार प्रिंसिपल ने अन्य अध्यापकों से सलाहमशवरा किया और फिर बेमन से ही सही, उसे ऐडिमिशन दे दिया. उन्हें यकीन था कि यह लड़का परेशान हो कर खुद ही कालेज छोड़ देगा.

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