रिजल्ट चाहे हाईस्कूल का आए या इंटर का या फिर आईएएस जैसे प्रतिष्ठित इम्तिहान का, अकसर पढ़ने को मिलता है कि किशोरियों ने फिर बाजी मारी या लाड़लियां अव्वल रहीं. मोटेमोटे अक्षरों वाले इन शीर्षकों में समाज के एक सुखद बदलाव का अतीत और भविष्य की तसवीर भी छिपी है कि कैसे किशोरियां इस मुकाम तक पहुंचीं और वे कौन सी वजह हैं जिन के चलते वे किशोरों को हर स्कूली और प्रतियोगी परीक्षा में पछाड़ रही हैं. जान कर हैरानी होती है कि लगभग 30-40 साल पहले तक किशोरियां प्रतियोगी परीक्षाएं तो दूर स्कूलकालेज भी न के बराबर ही जाया करती थीं. किशोरों के मुकाबले स्कूलकालेजों में उन की संख्या 10त्न भी नहीं थी. पर पढ़ने और कैरियर बनाने का मौका मिलने पर उन्होंने न केवल खुद का लोहा मनवाया बल्कि साबित कर दिया कि वे लड़कों से बढ़ कर हैं.

पढ़नेलिखने और कैरियर बनाने का मौका किशोरियों को यों ही नहीं मिल गया, बल्कि इस के पीछे कई पारिवारिक और सामाजिक कारण हैं. जैसेजैसे लोग छोटे परिवार का महत्त्व समझते गए तो परिवार सीमित होने लगे. इस से पहले जब एक मातापिता की अधिक संतानें पैदा होती थीं तो किशोरियों को ज्यादा नहीं पढ़ाया जाता था. वे घर का कामकाज करती थीं और फिर शादी के बाद दूसरे भरेपूरे घर में जा कर अपनी गृहस्थी की जिम्मेदारी निभाती थीं. छोटे परिवारों के चलन में आते ही किशोरियों की पढ़ाई पर  भी खास ध्यान दिया जाने लगा, क्योंकि अभिभावक उन्हें ले कर कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते थे. नतीजतन, किशोरियां आत्मनिर्भर होने लगीं और इतनी तेजी से नौकरियों में आईं कि देखते ही देखते हर जगह उन का वर्चस्व दिखने लगा.

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