वक्त था जब घर में माताएं बच्चों को फर्श की स्लेट बना कर खडि़या मिट्टी से गणित के पहाड़े से ले कर हिंदी, अंगरेजी और इतिहास तक रटा डालती थीं. दरअसल, तब शिक्षा मनोरंजन भी थी. आधुनिकता के नाम पर केवल रेडियो ही हुआ करता था और वह भी केवल धनी लोगों के पास. इसलिए ज्ञान की गठरी को ही मनोरंजन की पोटली समझ बच्चे मां की बात सुन लिया करते थे. अब तो आधुनिकता की परत जम चुकी है और शिक्षा ने अपना चोला बदल लिया है. बिना कोचिंग जाए पढ़ाई पूरी ही नहीं होती और घरों में बच्चों को खेलने से फुरसत नहीं मिलती.

वैसे, इस में गलती बच्चों की कम अभिभावकों की अधिक है. काम में उलझे पिता और किटी पार्टी में व्यस्त मां की प्राथमिकता अब बच्चे की पढ़ाई से अधिक उन का खुद का मनोरंजन बन चुका है. इसीलिए अब घरों में पढ़ाई का माहौल बना कर रख पाना इन आधुनिक अभिभावकों के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है. वैसे अभिभावकों की बदलती प्राथमिकताओं के अलावा शिक्षा के बदलते आयाम और बच्चों की बिगड़ी दिनचर्या भी काफी हद तक घरों में शिक्षा का माहौल न बना पाने में दोषी हैं.

जरा खुद ही गुणाभाग लगा लीजिए. बच्चा 5-6 घंटे स्कूल में बिता कर घर लौटता है कि उसे पढ़ने के लिए कोचिंग भेज दिया जाता है. कोचिंग से घरवापसी के बाद तो बच्चे को किताबों की शक्ल देखना भी मंजूर नहीं होता. और आज के अभिभावकों की इतनी हिम्मत कहां कि वे अपने लाड़ले बच्चे को पढ़ने के लिए उकसा भी सकें. इस का बुरा प्रभाव तब देखने को मिलता है जब बच्चों के परीक्षा में बुरे नंबर आते हैं क्योंकि घर में तो उन्हें पढ़ने की आदत ही नहीं होती और एग्जाम के दिनों में जब उन्हें घर में पढ़ना पड़ता है तो वे उसे बोझ समझने लगते हैं.

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