कोलकाता के जानेमाने कवि सुभाष मुखोपाध्याय और कथाकार व कवि सुनील गंगोपाध्याय जैसे और भी कई विशिष्ट जन से ले कर आमजन भी मरणोपरांत देहदान के लिए वचनबद्ध हुए और इस के लिए कागजी खानापूर्ति भी की. लेकिन ज्यादातर मामलों में पाया गया कि वचनबद्धता के बावजूद पारिवारिक आपत्ति के कारण आखिरकार देहदान नहीं हुआ.

सख्त कानून की तैयारी

साल 2013 में तमिलनाडु सरकार ने मरणोपरांत देहदान संबंधी कानून में संशोधन किया है. गणदर्पण नामक संस्था के अध्यक्ष ब्रज राय का कहना है कि ज्यादातर मामलों में देखा जाता है कि देहदान व अंगदान की वचनबद्धता के बावजूद परिवार की ओर से मृत्यु की खबर संस्था को दी ही नहीं जाती. अकसर ऐसा भी होता है कि खबर देने के बावजूद अंतिम समय में परिवार के सदस्य देहदान से पीछे हट जाते हैं.

अब पश्चिम बंगाल के प्रस्तावित कानून के ड्राफ्ट में इस बात पर जोर दिया जा रहा है कि अंग व देहदान कर देने के बाद करीबी रिश्तेदारों की आपत्ति को तूल न दिया जा सके. इस के लिए देह व अंगदान के इच्छापत्र के साथ ही संबंधित करीबी रिश्तेदारों को सम्मतिसूचक हलफनामा देना आवश्यक कर दिया जाएगा.

मनोज चौधुरी का कहना है कि जिस तरह तमिलनाडु में कानून संशोधित कर मरणोपरांत देह व अंगदान के रास्ते में आने वाली अड़चन को रोका जा सकता है, हमारी राज्य सरकार भी उसी रास्ते पर चलने की तैयारी में है. अब तक कानून के होते हुए भी मानवीय कारणों से पारिवारिक आपत्ति को मान लिया जाता रहा है पर अब ऐसा नहीं होगा.

क्या कहते हैं आंकड़े

गणदर्पण के अध्यक्ष ब्रज राय का कहना है कि बंगाल में लगभग 3 दशक पहले दकियानूसी विचारों को त्यागते हुए काफी लोगों ने मरणोपरांत नेत्रदान व देहदान करना शुरू किया. राज्य में इस चलन का श्रेय गणदर्पण और उदयेर पथे जैसी स्वयंसेवी संस्थाओं को जाता है. पिछले 3 दशकों में पश्चिम बंगाल में 10 लाख से ज्यादा लोगों ने विभिन्न संस्थानों के जरिए अंगदान व देहदान के लिए अपनी प्रतिबद्धता दिखाई है.

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