‘‘जब देश में थी दीवाली,

वे खेल रहे थे होली.

जब हम बैठे थे घरों में,

वे झेल रहे थे गोली.’’

फौजियों के जीवन की सचाइयों को दर्शाती ये उपरोक्त पंक्तियां कितनी सटीक हैं.

फौजी किसी भी देश की सरहदों के ही नहीं बल्कि बर्फ की चोटियों पर, पहाड़ों, सागरों, नदियों, झरनों, घाटियों, चट्टानों, मरुभूमि जाने कहांकहां पर तैनात दिनरात के सजग प्रहरी हैं जिन की छत्रछाया में सभी झुग्गीझोपडि़यों से ले कर छोटेबड़े आशियानों में सुखचैन की नींद सोते हैं.

देश व देशवासियों की रक्षा करते ये वीर मातृभूमि के लिए, जनगण के लिए चिरनिंद्रा में सो जाते हैं तो उन के परिवार के प्रति देश के साथ उस की जनता की भी बड़ी जिम्मेवारी हो जाती है. आर्थिक सहायता के साथ कुछ चमचमाते मैडलों की कटु झनकार और विभिन्न पदवियों से नवाज कर ही उन के किए का ऋण किसी तरह से नहीं चुकाया जा सकता है.

एक फौजी के साथ न जाने कितनी जिंदगियां जुड़ी रहती हैं और देशरक्षा के लिए उन के प्राणों के साथ उन के सगेसंबंधियों की भी कुरबानी दे दी जाती है जो सर्वथा अन्याय है. इन उजड़े परिवारों को पुन: स्थापित करना हर देशवासी का परम कर्त्तव्य होना चाहिए.

किसी भी सैनिक के शहीद होने पर उस का परिवार तो बिखरता ही है लेकिन सब से ज्यादा उजड़ती हैं इन की ब्याहताएं, जो परिवार से अपेक्षित हो कर ठोकरें खाने को मजबूर हो जाती हैं. अगर ये युवा हुईं तो परिवार के साथ सारे समाज के मर्दों के खेलनेखिलाने की वस्तु बन जाती हैं.

व्यभिचारों, दुराचारों, कोठों की अंधेरी गलियारों में ढकेल दी जाती है. जीवन बद से बदतर हो जाता है. सरकारी आर्थिक सहायता को परिवार वाले अपने बेटेभाई की कमाई समझ कर हथिया लेते हैं. हर सुविधा पर अपना अधिकार जमाते हुए बेटेभाई की अमानत उस की विधवा, उस के बच्चे को लोकलज्जा हेतु सहायता के चंद निवाले फेंक अपनी दुनिया में मगन हो जाते हैं.

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