16 वर्ष की आयु में सुधीर ने आगे चलने के लिए उस सड़क को चुना जिस पर कम मुसाफिर ही कदम रखते हैं. दिल्ली के एक सम्मानित स्कूल से उस ने 10वीं कक्षा 85 प्रतिशत अंकों से पास की और फिर वह पुडुचेरी के निकट ओरोविले में इस उम्मीद से प्रवेश के लिए पहुंच गया कि वह अपना भविष्य वैकल्पिक स्कूलिंग के जरिए बनाएगा.

सुधीर की तरह अनेक छात्र हैं जिन्होंने परंपरागत स्कूलों के बजाय ओरोविले जैसी वैकल्पिक व्यवस्थाओें का चयन किया है इस उम्मीद के साथ कि वैकल्पिक शिक्षा परंपरागत क्लासरूमों से बेहतर है. लेकिन इस का अर्थ यह नहीं है कि परंपरागत स्कूलों में प्रवेश के लिए लंबी लाइनें लगनी बंद हो गई हैं. जिन परंपरागत स्कूलों के नतीजे अच्छे आते हैं उन में प्रवेश पंक्तियां अब भी लंबी होती जा रही हैं. लेकिन साथ ही, वैकल्पिक स्कूलों की मांग भी बढ़ती जा रही है. मसलन, बेंगलुरु के किनारे पर एक वैकल्पिक स्कूल ‘द वैली स्कूल’ को ही लीजिए, जिस का दर्शन होलिस्टिक (संपूर्ण) अध्ययन में है. उसे 2013 तक कक्षा एक में प्रवेश के लिए केवल 13 या 14 छात्र ही मिल पाते थे, लेकिन इस साल 250 प्रवेशपत्र प्राप्त हुए हैं. अन्य वैकल्पिक स्कूलों की भी यही स्थिति है. इस के अलावा होम स्कूल में भी दिलचस्पी बढ़ती जा रही है. यह अलग बात है कि इग्नू जैसी शिक्षा की वैकल्पिक व्यवस्थाओें को प्रशासनिक तंत्र निरंतर गड्ढे में ढकेल रहा है.

यहां यह बताना आवश्यक है कि जो स्कूल ‘वैकल्पिक’ की श्रेणी में आते हैं उन में किसी एक विशेष दर्शन का पालन नहीं होता है. लेकिन उन में एक साझा बात यह है कि वे बच्चे के विकास के लिए एकेडैमिक प्रदर्शन पर ही निर्भर नहीं करते हैं बल्कि बाल-केंद्रित शिक्षा में विश्वास करते हैं. यह सिद्धांत देश के सभी प्रमुख शहरों में पेरैंट्स को आकर्षित कर रहा है. पिछले एक दशक के दौरान पेरैंट्स में जागृति आई है और वे अपने बच्चों के लिए तनावमुक्त अध्ययन वातावरण की तलाश में हैं. पेरैंट्स की समझ में आ रहा है कि शिक्षा की तलाश में परीक्षाएं तो होती हैं लेकिन ज्ञानी होने का सिलसिला जीवनभर की प्रक्रिया है.

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