"डाक्टर साहब मेरे पास इलाज के लिए पैसे नहीं है. दवा कहां से खरीदेंगे? मर जाएंगे हम. हमारा परिवार बर्बाद हो जाएगा. कुछ कीजिए डाक्टर साहब. मेरी जान बचा लीजिए.’’ यह कहते कहते मरीज की आंखें भर आती हैं. आवाज भर्रा जाती है. एड्स का मरीज दिनेश(बदला हुआ नाम) डाक्टर से जान बचाने की गुहार लगाता है. उसके पास ही उसकी बीबी रजनी चुपचाप खड़ी है. उनके 3 छोटे-छोटे मासूम बच्चों को अपने पिता की बिमारी के बारे में पता नहीं है. वे टुकुर-टुकर अपने पिता और डाक्टर को देख रहे हैं. पहले तो डाक्टर उसे डांटते हैं कि जब पहली बार ही कमजोरी या वजन घटने की शिकायत शुरू हुई तो उसी समय डाक्टर के पास क्यों नहीं गए? उसके बाद वह अपने कम्पाउंडर को बुलाते हैं और मरीज का सारा टेस्ट करवाने और उसके पूरे इलाज और दवा का इंतजाम करने की हिदायत देते हैं.

पटना के मशहूर डाक्टर दिवाकर तेजस्वी गरीब मरीजों का इलाज, जांच और दवा का पूरा इंतजाम खुद करते हैं. वह कहते हैं कि मेरे क्लीनिक से मरीज स्वस्थ और हंसते हुए घर जाना चाहिए और वह इसे पूरी तरह से निभाने में लगे रहते हैं. ‘बिल क्लिंटन एड्स फाउडेशन’ से जुड़े दिवाकर पिछले 15 सालों से एड्स और टीबी के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं और आम लोगों को जगारूक करने का काम कर रहे हैं.

23 सितंबर 2005 को उन्होंनें पहली बार पटना के भीड़ भरे एक्जीविशन रोड पर बीच सड़क पर मजमा लगाया और एड्स से पीड़ित महिला रामपति के हाथों से बिस्कुट खाकर उन्होंने यह बताने की कोशिश की कि एड्स छुआछूत की बीमारी नहीं है. एड्स के मरीज को इलाज के साथ सहानूभूति की भी जरूरत होती है. बिहार के सारण जिला के चैनवा प्रखंड के चड़वा गांव की रहने वाली रामपति के पति मुख्तार की मौत एड्स की वजह से हो चुकी थी. वे ‘पब्लिक अवेयरनेस फॉर हेल्थफुल एप्रोच फॉर लीविंग’ के नाम से अपना संगठन भी चला रहे हैं. इसके साथ ही गांवों और दूर दराज के इलाकों में हेल्थ कैंप लगा कर आम आदमी को एड्स और हेल्थ के प्रति जागरूक करने की मुहिम चला रहे हैं. डाक्टर दिवाकर बताते हैं कि वह अब तक एक हजार से ज्यादा जागरूकता और फ्री हेल्थ चेकअप कैंप लगा चुके हैं.

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