इक्कीसवीं सदी में शब्दकोश में सिंगल पेरैंट के नाम से एक नया शब्द जुड़ गया है. भारत में भी सिंगल पेरैंट का रिवाज बड़ी तेजी से बढ़ रहा है. पहले बीमारी, युद्ध, मृत्यु के कारण सिंगल पेरैंट होना  विवशता थी. तब विधवा या विधुर बच्चों का पालन करते थे. बच्चे वाली विधवा या बच्चे वाले विधुर को सिंगल पेरैंट के नाम से नहीं पुकारा जाता था. पहले कुंआरी मां की कल्पना भी नहीं की जाती थी, सभ्य समाज में कुंआरी मां बहुत घृणात्मक शब्द गिना जाता था, परंतु अब यह एक सामान्य शब्द है. अब इसे पसंद किया जाने लगा है. केवल इतना ही नहीं, अब तो यह रिवाज और स्टेटस सिंबल बन गया है. वैसे तो उस समय कोई कुंआरी मां नहीं थी, यदि होती भी तो ऐसी महिला को कोई किराए पर भी मकान नहीं देता था.

यही स्थिति कुंआरे पुरुष की भी थी, परंतु अब समय बदल गया है. उस समय केवल विवाहित दंपती को ही बच्चे पैदा करने का अधिकार था. पतिपत्नी दोनों मिल कर बच्चों का पालनपोषण करते थे.  पहले जब 2 विवाहित महिलाएं मिलती थीं, एक महिला अपने लड़के की ओर संकेत करती हुई कहती थी, इस के पिता बाहर गए हुए हैं, कहना नहीं मानता तथा बहुत परेशान करता है. कहने का तात्पर्य है कि मातापिता दोनों मिल कर ही बच्चों का पालनपोषण करने में समर्थ थे, अकेले नहीं. यद्यपि माता की गरिमा पृथ्वी से भी भारी है तो पिता का सम्मान आकाश से भी उच्चतर है. इस के विपरीत अब सिंगल मदर सहर्ष फुलटाइम काम भी करती है तथा बच्चों को पालती भी है.

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