अपनी शर्तों पर जीने की
एक चाह सब में रहती है
किंतु जिंदगी अनुबंधों के
अनचाहे आश्रय गहती है
 
क्याक्या कहना
क्याक्या सुनना
क्याक्या करना पड़ता है
कितना मरना पड़ता है
 
समझौतों की सुइयां मिलतीं
धन के धागे भी मिल जाते
संबंधों के फटे वस्त्र तो
सिलने को हैं सिल भी जाते
 
सीवन
कौन, कहां, कब उधड़े?
इतना डरना पड़ता है
कितना मरना पड़ता है
 
मेरी कौन बिसात यहां तो
संन्यासी भी सांसत ढोते
लाख अपरिग्रह के दर्पण हों
संग्रह के प्रतिबिंब संजोते
 
कुटिया में कौपीन कमंडल
कुछ तो धरना पड़ता है
जी कर देख लिया जीने में
कितना मरना पड़ता है.
बीना बुदकी
 

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...