क्षितिज के पार ‘सूर्य’

कुल अलसाया था

अदृश्य हो रहा है

पर, वही सुबह समय

उल्लास, आशा भर देने वाला है.

कभीकभी अंधेरा होने पर

आंखें अपनेआप बंद होती हैं

कुछ खट्टीमीठी यादें

आंखों के सामने

घूमने लगती हैं.

‘दिया’ लगने के पूर्व किटकों की

किर्रकिर्र ध्वनि

नैराश्य थकावट

आजूबाजू का अंधेरा देख

‘इस लोक’ से प्रयाण के पूर्व

‘गला भर’ आता है-

पैर लटपटाने लगते हैं

मन जलने लगता है

क्यों घिसट रहे हैं शरीर को

मेरी दशा ऐसी क्यों

रहेगी भी कब तक?

सूर्योदय होगा

जीने की तमन्ना जाग उठेगी

फिर, दिन ढलने के समय

शाम उदास क्यों?

- अविनाश दत्तात्रय कस्तुरे

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