बस यही है जिंदगी
सुबह अलसाई सी
दोपहर झुलसाई सी
शाम धुंधलाई सी
रात डबडबाई सी
बस यही है जिंदगी
बचपन ममता से रीते
युवा मन राहों से भटके
वृद्ध उपेक्षित से जीते
पेट भूखे ही सोते
बस यही है जिंदगी
गांव वीराने हुए
शहर बेगाने हुए
पनघट प्यासे हुए
घर मरघट हुए
बस यही है जिंदगी
आंगन नीम पेड़ सूखे
रक्त वेदना को सींचे
भीड़ में सब अकेले
मन में अश्कों के मेले
बस यही है जिंदगी
प्रीत तो पीर बन गई
गर्ज ही मीत बन गई
रिश्तों पर गर्द जम गई
अर्थ की पूछ बढ़ गई
बस यही है जिंदगी.
 विष्णु ‘बसंत’

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...