कुछ इस तरह से पूरी
मेरी जुस्तजू हुई
चाह जिस की छोड़ी
उस को मेरी आरजू हुई
कर न सके इनकार
किसी बात को भी उस की
कुछ इस तरह से
कल वो मेरे रूबरू हुई
फिर न मिलेंगे कहते थे
बड़ी आनबान से
मगर जब मिले तो
अना बड़ी बेआबरू हुई
उस ने जो मांगा था वो
उसे मिल भी गया था
उस खुशनसीब को मेरी
फिर कमी क्यों हुई
जो होना था उन पर
मेरी बातों का असर यों
तो कहो क्यों कभी न
पहले यों गूफ्तगू हुई
इश्क हो सच्चा तो
‘आलोक’ मिलता जरूर है
समंदर को रवाना
आखिर को आबजू (नदी) हुई.
आलोक यादव

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...