दो घड़ी तन्हा भी बैठा जाए
कैसे हो खुद से ये पूछा जाए

नहीं दिखता बहुत करीब से भी
तुम को कुछ दूर से देखा जाए

अपने बारे में सभी सोचते हैं
सब के बारे में भी सोचा जाए

इल्म की शमा को रौशन कर के
तीरगी का गुमां तोड़ा जाए

सब को खुद ही तलाशनी मंजिल
जाते राही को न रोका जाए

घर तो अपना सजा लिया ऐ ‘सरल’
दिल के जालों को भी झाड़ा जाए.

मुकुल सरल
 

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