भारतीय राजनीति में भाषा की ऐसी गिरावट शायद पहले कभी नहीं देखी गयी. ऊपर से नीचे तक सड़कछाप भाषा ने अपनी बड़ी जगह बना ली है. ये ऐसा समय है जब शब्द सहमे हुए हैं, क्योंकि उनके दुरुपयोग की घटनाएं लगातार जारी हैं. राजनीति जिसे देश चलाना है और देश को रास्ता दिखाना है, वह खुद गहरे भटकाव की शिकार है. लोग निरंतर अपने ही बड़बोलेपन से ही मैदान जीतने की जुगत में हैं और उन्हें लगता है कि यह ‘टीवी समय’ उन्हें चुनावी राजनीति में स्थापित कर देगा. दिखने और बोलने की संयुक्त जुगलबंदी ने टीवी चैनलों को कच्चा माल उपलब्ध कराया हुआ है, तो राजनीति में जल्दी स्थापित होने की त्वरा में लगे नए नौजवान भी भाषा की विद्रूपता का ही अभ्यास कर रहे हैं.

यह गिरावट चौतरफा है. बड़े रास्ता दिखा रहे हैं, नए उनसे सीख रहे हैं. टीवी और सोशल मीडिया इस विद्रूप का प्रचारक और विस्तारक बना हुआ है. न पद का लिहाज, न आयु का, ना ही भाषा की मर्यादा-सब इसी हमाम में नंगे होने को आतुर हैं. राजनीति से व्यंग्य गायब है, हंसी गायब है, परिहास गायब है- उनकी जगह गालियों और कटु वचनों ने ले ली है. राजनीतिक विरोधी के साथ शत्रु की भाषा बोली और बरती जा रही है. यह संकटकाल बड़ा है और कठिन है.

पहले एकाध आदित्यनाथ थे. आज सब इन्हें हटाकर खुद को उनकी जगह स्थापित करना चाहते हैं. केंद्रीय राजनीति के सूरमा हों या स्थानीय मठाधीश कोई भाषा की शुचिता का पालन करता नहीं दिखता. जुमलों और कटु वचनों ने जैसी जगह मंचों पर बनाई, उसे देखकर हैरत होती है. बड़े पदों पर आसीन राजनेता भी चुनावी मोड में अपने पद की मर्यादा भूलकर जैसी टिप्पणियां कर रहे हैं, उसका मूल्यांकन समय करेगा. किंतु इतना तो यह है कि यह समय राजनीति भाषा की गिरावट का समय बन चुका है.

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