भारतीय राजनीति इन दिनों वर्चस्व की लड़ाई में मशगूल है. फिर वह तृणमूल कांग्रेस हो या मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी हो या नईनवेली आम आदमी पार्टी. जहां तक कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी का सवाल है, इन दोनों पार्टियों में नेतृत्व को ले कर समयसमय पर विरोध और उठापटक के साथ वर्चस्व के लिए सत्ता संघर्ष का अपना इतिहास रहा है. आम आदमी पार्टी को इस में अपवाद माना जा रहा था लेकिन पिछले कुछ दिनों में पार्टी में जो ड्रामा हुआ उस से साफ जाहिर है कि वर्चस्व की लड़ाई में यह पार्टी भी अब अछूती नहीं रही. जबजब पार्टी के दूसरी कतार के नेताओं ने शीर्ष पर आने की कवायद शुरू की है तो ऐसे नेताओं को उन की औकात बताने में पार्टी ने कतई देरी नहीं की.

आजादी से पहले जवाहरलाल नेहरू बनाम सुभाष चंद्र बोस और बाद में नेहरू बनाम सरदार वल्लभभाई पटेल का सत्ता संघर्ष जगजाहिर है. कहा जाता है महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद सी राजगोपालाचारी, सुचेता कृपलानी जैसे कई दिग्गज नेताओं को दरकिनार कर नेहरू ने पार्टी में अपना वर्चस्व कायम किया. नेहरू के बाद इंदिरा गांधी बनाम मोराजी देसाई ऐंड कंपनी के बीच वर्चस्व की लड़ाई इतिहास के पन्नों में दर्ज है. इंदिरा गांधी की इस बात के लिए बड़ी आलोचना भी हुई कि उन्होंने कांग्रेसी नेताओं की एक पूरी पीढ़ी को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया. इस के अलावा अर्जुन सिंह या शरद पवार बनाम नरसिम्हाराव, प्रकाश करात बनाम सीताराम येचुरी, उद्धव बनाम राज ठाकरे के बीच वर्चस्व की लड़ाई की मिसालें भारतीय राजनीति में हैं.

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