सुना है भारत को पंगू विदेश नीति से छुटकारा मिला है. यह भी सुनने को मिल रहा है कि नरेंद्र मोदी ने भारत की साख वैश्विक मंच पर बढ़ा दी है. शायद सही है. मीडिया यही समझा रही हैं. मगर पंगू के पांव उगते ही वह किस ओर भाग रहा है, और उसकी साख कैसी बन रही है? क्या यह सोचने और देखने की जरूरत नहीं है? शायद नहीं है. दिखाया यह जा रहा है, कि पंगू भाग रहा है. सरपट दौड़ रहा है, और यही बड़ी बात है. इस बात को छुपाया जा रहा है, कि जिस विदेश नीति को पंगू बताया जा रहा है, वह पंगू नही थी, उसके पांव थे और वह अपने पांव पर खड़ी थी. नरेंद्र मोदी एक पांव पर टंग गये हैं, और दूसरे पांव को लकवा मरवा रहे हैं. जिससे उसकी अंतर्राष्ट्रीय छवि बनी है, उसकी गुट निरपेक्षता को हमें खत्म मान लेना चाहिये. हमें यह मान लेना चाहिये कि वह अमेरिकी साम्राज्यवाद के खेमें में खड़ा है. पूंजीवादी-साम्राज्यवाद के विरूद्ध विश्व के वैकल्पिक व्यवस्था से उसने किनारा कर लिया है. जिसका मतलब है, कि वह तीसरी दुनिया का ऐसा देश बन रहा है, जिसे एशिया में, अमेरिकी हितों के लिये काम करना है. और इस बात को भारत की मोदी सरकार अपनी उपलब्धियों के रूप में देखती है.

इस बीच यदि आपने ‘जी-20’ और ‘आसियान’ शिखर सम्मेलनों की भारतीय मीडिया की रिर्पोटिंग को देखा होगा, तो आपको ऐसा लगेगा कि वार्तायें मोदी के वक्तव्यों से नियंत्रित होती रहीं और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा उनके हां में हां मिलाते रहे. मोदी उनकी ओर देखते रहे और ओबामा के इशारों पर बोलते रहे. वो बोलते रहे कि दुनिया की सबसे बड़ी समस्या आतंकवाद है. भारत का पड़ोसी देश (पाकिस्तान) आतंकवाद का उत्पादन और निर्यात कर रहा है. ऐसे निर्यातक देश को विश्व समुदाय से अलग-थलग कर देना चाहिये. उन्होंने ब्रिक्स देशों के आपसी बैठक में भी यही कहा.

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