चुनाव में जीत और हार का सिलसिला चलता ही रहता है. नेता इस बात को समझते है. सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस पार्टी 2014 के लोकसभा चुनावों की हार को पचा नहीं पा रही है. उत्तर प्रदेश और पंजाब के विधानसभा चुनावों की तैयारी में कांग्रेस को अपने संगठन और नेताओं से कहीं अधिक भरोसा राजनीतिक मार्केटिंग से चर्चा में आये प्रशांत किशोर पर है. लखनऊ में प्रशांत किशोर ने कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष निर्मल खत्री सहित तमाम दूसरे नेताओं के साथ मीटिंग की. मीटिंग के दौरान दिख रहे आत्मविश्वास में कांग्रेस के पुराने नेताओं का आत्मविश्वास हिला दिख रहा था, जबकि प्रशांत किशोर का आत्मविश्वास पूरा हिलोरे मार रहा था. यह सही है कि आज बिकने और बेचने का दौर है. इसके बाद भी यह कह सकते है कि केवल मार्केटिंग से राजनीतिक लडाई नहीं लडी जा सकती. राजनीतिक जंग को जीतने में जनता का भरोसा जीतना पडता.

कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए-1 और यूपीए-2 ने देश में 2004 से 2014 तक लगातार 10 साल राज किया. दोनो ही कार्यकाल की तुलना करे तो यूपीए-1 में कांग्रेस की नीतियां देश और समाज के हित में थी. तब कांग्रेस को जीत के लिये किसी मार्केटिंग कंपनी की जरूरत नहीं पडी. भारतीय जनता पार्टी इंडिया शाइनिंग कैंपेन जरूर शुरू की थी पर उसका लाभ उसे नहीं मिला था. यूपीए-2  की सरकार में कांग्रेस अल्पमत में थी. कोई बडा काम वह नहीं कर सकी. छोटे छोटे सहयोगी दलों ने दबाव बना कर रखा और भ्रष्टाचार किया. कई कांग्रेसी नेता भी भ्रष्टाचार की बहती गंगा में हाथ धोने से नहीं चूके. 2009 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश ने कांग्रेस को 22 सासंद दिये जो हाल के कुछ सालों में कांग्रेस का सबसे अच्छा प्रदर्शन था.इन सांसदों ने कुछ काम नहीं किया. मंहगाई के बढते बोझ ने कांग्रेस को नजर से उतार दिया. ऐसे समय में कांग्रेस की हार तय थी.

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