जिस मनुवाद और सवर्णवाद को कोसते-कोसते स्वामी प्रसाद मौर्य ने बसपा में अपने कद को बड़ा बनाया था, भाजपा में शामिल होने के बाद वह अपनी पुरानी पहचान कैसे मिटा पायेंगे. स्वामी प्रसाद ने मूर्तिपूजा और पूजा पद्वित को लेकर तमाम तरह की बातें कहीं थी, जो भाजपा के लोग न तब हजम कर पाये थे और न अब हजम कर पायेंगे. ऐसे में स्वामी प्रसाद मौर्य भाजपा में कितना स्वीकार होंगे, सहज रूप से समझा जा सकता है.

राजनीति में विचारों का अपना अलग महत्व होता है. इन विचारों की वजह से नेता की नीति तय होती है. उसकी नीति से ही जनाधार बढ़ता है. दल बदल और नीतियों से समझौता करना दोनों अलग विषय होते हैं. भाजपा ने लोकसभा चुनाव के समय कई दलित नेताओं को पार्टी में शामिल किया था. समय के साथ यह नेता ससंद में जरूर पहुंच गये, कुछ मंत्री भी बन गये, पर असल में वह अपनी जमीन खो चुके हैं. आज जब दलित मुद्दों पर वह बोलते हैं तो उनकी बेचारगी देखने वाली होती है.

स्वामी प्रसाद मौर्य बसपा में नंबर 2 के नेता थे. बसपा प्रमुख मायावती क्या चाहती थी और क्या सोचती थी यह वह जानते थे. दलित मुद्दों को लेकर विधानसभा में स्वामी प्रसाद मौर्य मुखर रहते थे. अकेले स्वामी प्रसाद ही ऐसे थे जिनसे समाजवादी पार्टी और भाजपा दोनो घबराती थी. असल में राजनीति में मुद्दे अब मायने नहीं रखते. नेता अपने कद को बढ़ाना चाहते हैं. नेताओं की इच्छा होती है कि वह अपने घर परिवार को भी राजनीति में स्थापित कर ले. ऐसे में वह अपने लाभ के हिसाब से फैसले लेते हैं. कई बार हवा का रूख जब सही होता है, तो सही होता है, तो लाभ मिलता है और कई बार हवा का रूख भांपने में जब कठिनाई होती है तो खेल बिगड़ भी जाता है.

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