सीताराम येचुरी भले आदमी हैं लेकिन वे जर्जर जहाज के कप्तान बने हैं या वे ऐसे गांव के मुखिया बने हैं जहां कोई रहता नहीं है. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता सीताराम येचुरी के पार्टी के महासचिव बनने पर ऐसी टिप्पणियां होनी लाजिमी ही हैं. किसी समय भारतीय राजनीति में महाबली मानी जाने वाली मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और वाममोरचे की हालत इन दिनों बेहद खस्ता है. केरल व पश्चिम बंगाल में शासन करने वाली माकपा चुनाव ही नहीं हारी, हिम्मत भी हार चुकी है. केवल त्रिपुरा जैसा छोटा राज्य ही बचा है जहां वह अब भी सत्ता में है. लोकसभा में उस की संख्या सिकुड़ चुकी है. येचुरी के लिए तो सिर मुंड़ाते ही ओले पड़े वाली कहावत सही साबित हुई कि माकपा अपना गढ़ रहे पश्चिम बंगाल के स्थानीय निकायों के चुनाव में बुरी तरह से पराजित हो गई. कोलकाता के 144 वार्डों में से केवल 15 वार्डों में ही वह जीत पाई. शेष बंगाल में तो हालत और भी बुरी रही. 91 स्थानीय निकायों में से केवल 6 निकायों में ही वह जीत पाई. मतलब साफ है कि पार्टी रसातल में पहुंच चुकी है.

वक्त ने क्या सितम ढाया है कि कभी जो कम्युनिस्ट पार्टी लाल किले पर लाल निशान फहराने के सपने देखती थी वह आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के जमाने में लुप्त प्रजाति बनती जा रही है. ऐसे समय में सीताराम येचुरी माकपा के महासचिव चुने गए हैं. यह तो अच्छा ही हुआ कि सीताराम येचुरी की माकपा का महासचिव बनने की हसरत पूरी हो गई जिस के लिए हमेशा उन का पूर्व महासचिव प्रकाश करात के साथ टकराव होता रहता था लेकिन माकपा की हालत देखते हुए तो यही लगता है कि यह पद कांटो भरा ताज है. येचुरी के कुछ प्रशंसक ऐसे भी हैं जो मानते हैं कि उदारवादी येचुरी माकपा के डेंग सियाओपिंग, जो चीन के नेता थे, की तरह माकपा के तारनहार साबित हो सकते हैं. यह बात अलग है कि येचुरी ने कम से कम अब तक इस बात का प्रमाण नहीं दिया कि उन में लीक से हट कर सोचने की क्षमता है और वे अगर डेंग न सही तो कम से कम मोदी की तरह अपनी पार्टी का कायाकल्प कर सकते हैं.

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