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मोदी का शुद्धियज्ञ, अनुयायियों की अंधभक्ति

मोदी के नोटबंदी वाले शुद्धियज्ञ में भ्रष्टाचारी, बेईमान, कालेधन के मालिक भी साफसाफ बच निकले. फिर भी अंधभक्त व अनुयायी हैं कि समझने को तैयार नहीं.

दीवाली के तुरंत बाद हमारा देश ऐतिहासिक शुद्धियज्ञ का गवाह बना है. सवा सौ करोड़ देशवासियों के धैर्य और संकल्पशक्ति से चला यह शुद्धियज्ञ आने वाले अनेक वर्षों तक देश की दिशा निर्धारित करने में अहम भूमिका निभाएगा. हमारे राष्ट्र जीवन और समाज जीवन में भ्रष्टाचार, कालाधन, जाली नोटों के जाल ने ईमानदार को भी घुटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया था. उस का मन स्वीकार नहीं करता था, पर उसे परिस्थितियों को सहन करना पड़ता था, स्वीकार करना पड़ता था. दीवाली के बाद की घटनाओं से सिद्ध हो चुका है कि करोड़ों देशवासी ऐसी घुटन से मुक्ति के अवसर की तलाश कर रहे थे.  

जब देश के कोटिकोटि नागरिक अपने ही भीतर घर कर गई बीमारियों के खिलाफ, विकृतियों के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए मैदान में उतरते हैं तो वह घटना हर किसी को नए सिरे से सोचने को पे्ररित करती है. दीवाली के बाद देशवासी लगातार दृढ़संकल्प के साथ, अप्रतिम धैर्य के साथ, त्याग की पराकाष्ठा करते हुए, कष्ट झेलते हुए, बुराइयों को पराजित करने के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं. जब हम कहते हैं कि ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’, तो इस बात को देशवासियों ने जी कर दिखाया है. कभी लगता था कि सामाजिक जीवन की बुराइयां, विकृतियां जानेअनजाने में, इच्छाअनिच्छा से हमारी जिंदगी का हिस्सा बन गई हैं लेकिन 8 नवंबर, 2016 की घटना हमें पुनर्विचार के लिए मजबूर करती है.’’

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 50 दिन के यज्ञ के बाद 31 दिसंबर, 2016 की शाम प्रजा के नाम जब यह संदेश दिया तो 5 हजार साल पहले पांडु कुल के अंतिम सम्राट राजा जनमेजय के सर्पयज्ञ की कथा ताजा हो गई. जनमेजय ने पृथ्वी से सांपों के अस्तित्व को मिटाने के लिए सर्पमेध यज्ञ किया था.

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नरेंद्र मोदी की नोटबंदी ने यह साफ कर दिया है कि हमारा लोकतांत्रिक अधिकार वास्तव में कितना कमजोर है. 70 साल के लोकतांत्रिक शासन और उस से पहले अंगरेज शासन में भी आधेअधूरे वोट से चुने गए प्रतिनिधियों के सीमित शासन के आदी होने के बावजूद इस नोटबंदी पर देश कुछ न कर पाया. संसद में विरोधी पक्ष अपनी बात न कह पाया, लोग सड़कों पर लाइनों में लगे रहे, पर गुस्सा न जाहिर कर पाए.

भारत की तरह विश्व के अन्य देशों में भी लोकतंत्र से बनी सरकारें अकसर मनमानी करती रहती हैं. अमेरिका ने देश को पहले वियतनाम लड़ाई में भी बिना जनता की राय के झोंक दिया था, फिर इराक व अफगानिस्तान के युद्धों में. दक्षिण कोरिया में राष्ट्रपति पार्क ग्वेन हे को हटाने की मांग की जा रही है, पर कोई सुन नहीं रहा. अमेरिका में ही अश्वेतों, लेटिनों और दूसरे इम्मीग्रैंटों का रहना खतरे में पहुंच गया है. इंगलैंड ने बहुमत से यूरोपीय यूनियन से निकलने का फैसला किया है, पर जनमत संग्रह लोकतांत्रिक है या नहीं, इस की बहस चालू है.

लोकतंत्र का अर्थ केवल 2-3 साल बाद एक मतदान केंद्र में वोट डालना भर नहीं है. लोकतंत्र का अर्थ है कि जनता को उस के सभी मौलिक व मानवीय अधिकार मिलें और वह अपने नीति निर्धारकों को चुनने में स्वतंत्र हो, पर ज्यादातर लोकतंत्रों में एक तरह की राजशाही, मोनार्की खड़ी हो गई है, जिस में नौकरशाही, बड़ी कार्पोरेशनें और राजनीतिक दल शामिल हैं, जिन का संचालन वे लोग करते हैं, जो उत्पादन में नहीं लगे, दूसरों के उत्पादन को लूटते हैं.

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