कभी दलित चिंतन पर पत्रिकाओं की नुमाइश  तो कभी संघ के पुराने नेताओं को दलित हितैषी छवि में पेश कर संघ खुद को दलितों के बीच स्थापित करने की फिराक में है. इतिहास को तोड़मरोड़ कर की जा रही संघ की दलित सियासत की पोल खोल रहे हैं कंवल भारती.
वर्णव्यवस्था का हिमायती राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदू धर्म की अपनी सोच को सुधारने के बजाय उसी को सही साबित करने पर तुला हुआ है. संघ दलितों के बीच प्रचारित करना चाहता है कि हिंदू धर्म दलित व शूद्र विरोधी नहीं, समर्थक है. हिंदू धर्म व संघ के पुराने नेता भी दलित हितैषी थे. इस के लिए संघ द्वारा अपने चिरपरिचित रहस्यमय शब्दजाल का सहारा लिया जा रहा है. हिंदू धर्म की और दलित अंबेडकर जैसे नेता द्वारा कही गई बातों को अपने तरीके से परिभाषित कर, सचाई को झुठला कर दलितों को बरगलाने का प्रयास किया जा रहा है.
पत्रिका की आड़ में
कांटे से कांटा निकालने का मर्म समझने में माहिर संघ यह काम प्रचार के जरिए दलित नेता द्वारा ही करा रहा है. इस के लिए 4 साल पहले बाकायदा ‘दलित आंदोलन पत्रिका’ नामक माध्यम ढूंढ़ा गया. संघ ने इस पत्रिका का संपादक वाजपेयी सरकार के समय राष्ट्रीय अनुसूचित जाति, जनजाति आयोग के अध्यक्ष रहे डा. विजय सोनकर शास्त्री को बनाया जो पूरी तरह संघीय सांचे में ढले हुए हैं.
दलितों के प्रति संघ का नजरिया किसी से छिपा नहीं है. संघ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, समरसता, एकात्मवाद जैसे रहस्यपूर्ण शब्दजाल के सहारे जातिव्यवस्था को बनाए रखने का हिमायती रहा है. संघ परिवार यह जताने की कोशिश करता आया है कि निचली जाति के पुराने संत हिंदू धर्म के समर्थक थे. संघ के हिंदू लेखकों द्वारा कबीर, रैदास को हिंदू धर्म का रक्षक और भीमराव अंबेडकर को हिंदुत्व समर्थक व मुसलिम विरोधी बताया जाता रहा है. इसी कड़ी में 1992 में मुंबई के ‘ब्लिट्ज’ अखबार में ‘डा. अंबेडकर को मुसलिम विरोधी बताते हुए 2 लेख लिखे थे.’
दलितों में सेंध
इन्हीं विचारों को आगे बढ़ाने के लिए संघ ने अपने हिंदी मुखपत्र ‘पांचजन्य’ का सामाजिक न्याय अंक निकाला था और 1996 में अरुण शौरी द्वारा अंबेडकर पर लिखी ‘वर्शिपिंग फौल्स गौड’ का सब को पता है. इसे ले कर दलितों ने काफी हल्ला मचाया था. इन हिंदूवादी विचारों का असर दलितों पर इसलिए नहीं पड़ा क्योंकि वे सब लेखक गैर दलित थे.
असल में इन सब का उद्देश्य अंबेडकर के दलित आंदोलन के प्रतिक्रांति में दलितों में शंकराचार्य की सांस्कृतिक एकता, हेडगेवार का हिंदू राष्ट्रवाद, गोलवलकर का समरसतावाद और दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानववाद स्थापित करना था. संघ यह साबित करना चाहता है कि हिंदू धर्म के इन नेताओं के विचार और अंबेडकर के दलित आंदोलन में समानता है. इस के लिए संघ को ऐसे दलित की जरूरत थी जो उस की विचारधारा में पलाबढ़ा हो.
विजय सोनकर शास्त्री इस कसौटी पर खरे उतरते नजर आए. नतीजतन ‘दलित आंदोलन पत्रिका’ शुरू की गई. जो काम संघ के मुखपत्र ‘पांचजन्य’ और भाजपा के ‘वर्तमान कमल ज्योति’ द्वारा नहीं हो पा रहा था, वह अब ‘दलित आंदोलन पत्रिका’ के जरिए पटरी पर दौड़ाया जाने लगा. इस पत्रिका के हर अंक में अंबेडकर के दलित आंदोलन को हिंदू आवरण में लपेट कर परोसा जा रहा है.
मई, 2013 के अंक में यह दलित संपादक अपने संपादकीय में लिखते हैं, ‘‘दलितोत्थान की दिशा में आदि शंकराचार्य द्वारा चलाया गया सांस्कृतिक एकता का प्रयास अतुल्य था. 4 धामों की स्थापना एवं वर्तमान समय में उन धामों की सर्वस्पर्शिता देश के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के स्थूल उदाहरण हैं. इतना ही नहीं, पूर्व काल में चाणक्य की राजनीतिक एकता और अखंड भारत के एक लंबे कालखंड का स्वरूप आज के राजनीतिक परिदृश्य में चिंतकों एवं विशेषज्ञों को भारतीय राजनीति के पुनरावलोकन के लिए बाध्य कर रहे हैं. इसलिए दलित राजनीति के राष्ट्रवादी स्वरूप की आज परीक्षा की घड़ी है. अद्वितीय राष्ट्रवाद के लिए जानी जाने वाली दलित वर्ग की 1,208 जातियों की वर्तमान समय में अग्निपरीक्षा होगी. संपूर्ण दलित समाज भारत की आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा जैसे मुद्दों पर भी राष्ट्रवादियों के साथ खड़ा दिखाई देगा.’’
संघ का एजेंडा
वाह, डा. विजय सोनकर शास्त्री, शंकराचार्य ने दलितों के उत्थान के लिए कब, कौन से प्रयास किए? शंकराचार्य तो भेदभाव का पूरा इंतजाम कर गए थे. क्या उन्होंने अपने 4 स्थापित मठों में से एक भी दलित शंकराचार्य बनाने का रास्ता साफ किया? जातिगत भेद खत्म कराने की कोई बात की?
इस में संघ का मूल एजेंडा मौजूद है. आंतरिक सुरक्षा का मतलब है हिंदूधर्म और समाज को बचाना और बाह्य सुरक्षा का मतलब सीमा के मुद्दे पर भाजपा का समर्थन करना. शंकराचार्य की सांस्कृतिक एकता में दलित कहां है, यह सवाल डा. विजय सोनकर शास्त्री से पूछा जाना चाहिए.
वे आखिर में लिखते हैं, ‘‘अब आवश्यकता है कि एक बार फिर हिंदू कोड बिल, महिला सशक्तीकरण, आर्थिक उत्थान के सिद्धांत, मजदूर संगठनों की भूमिका और सामाजिक क्षेत्र में सामाजिक समरसता की संस्तुति का स्वागत किया जाए.’’
बेतुके तर्क
इस में नई बात ‘सामाजिक समरसता’ है जिसे अंबेडकर के नाम से जोड़ा गया है और यही संघ परिवार का मूल सामाजिक कार्यक्रम है. सामाजिक समरसता का मतलब है जातीय और वर्गीय संघर्ष को रोकना. संघ के नेता कहते हैं, सामाजिक असमानता का सवाल न उठाओ, हाथ की सभी उंगलियां समान नहीं होतीं, पर उन के बीच समरसता बनाओ.
संघ नेताओं का क्या बकवास तर्क है. क्या उंगलियों की समानता और इंसानों की समानता में फर्क नहीं है? उंगलियों की संरचना प्राकृतिक है जबकि वर्णव्यवस्था में भेदभाव, छुआछूत की व्यवस्था आप के पूर्वजों ने बनाई. ऐसे बचकाने तर्क दे कर संघ वर्णव्यवस्था का समर्थन करता आया है.
समभाव और ममभाव
इसी अंक में दलितों को भाजपा से जोड़ने वाला दूसरा लेख है, ‘बाबासाहब डा. अंबेडकर नरेंद्र मोदी की डायरी में.’ इस में 2 उपशीर्षक हैं, ‘डा. अंबेडकर ने वंचित समाज को दी एक नई पहचान’ और ‘दलित समाज के लिए समभाव और ममभाव आवश्यक.’ दलितों के लिए वंचित शब्द संघ का दिया हुआ है. एक समय मायावती ने भी वंचित शब्द का खूब प्रयोग किया था, जब उन्होंने भाजपा से गठबंधन किया था.
समभाव और ममभाव क्या है? इसे समझाते हुए लेख में कहा गया है, ‘‘हम अपने पुराणों, अपने इतिहास और महापुरुषों की ओर दृष्टि करें तो एक बात स्पष्ट रूप से दिखाई देती है कि उस युग की सिद्धि के मूल में उस समय के युगपुरुषों ने समाज के छोटे से छोटे आदमी को साथ लेने के लिए जागृत प्रयास किया था, उस के बाद ही सफलता मिली थी.’’
ये नरेंद्र मोदी के शब्द हैं, जिन में वे दलितों के प्रति हिंदू संस्कृति में समभाव और ममभाव की मौजूदगी का हवाला दे रहे हैं. इसी तरह का हवाला उन्होंने ममभाव का भी दिया है, ‘‘प्रभु राम को सरयू पार कर चित्रकूट में पहुंचना था तो केवट को साथ लिए बिना वे वहां कैसे पहंचते? अवतारी प्रभु राम के लिए लंका पहुंचना कोई कठिन काम था, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है, पर लंका जाने के लिए सेतु बांधने के लिए अपने 14 वर्ष के वनवास के समय उन्होेंने वानरों को अपना साथी बनाया था. रामजी ने शबरी को माता कौशल्या से जरा भी कम सम्मान नहीं दिया था.’’
संघ हिंदू धर्मग्रंथों में देवताओं और अवतारों के दिए गए उद्धरणों से उन्हें और हिंदू धर्म को दलित, शूद्र विरोधी नहीं, समर्थक साबित करना चाहता है.
संघ परिवार चाहता है कि दलित जातियां हिंदुत्व के लिए शबरी, हनुमान और वानरों की भूमिका में ही अपने को सीमित रखें.
डा. अंबेडकर और दलित आंदोलन को विकृत रूप में पेश करने वाले संघ परिवार और भाजपा से पूछा जाना चाहिए कि उन का यह ‘समभाव और ममभाव’ उस समय क्यों शत्रुभाव में बदल जाता है जब दलित वर्ग के लोग अपने विकास के लिए आरक्षण की मांग करते हैं. यह समभाव और ममभाव 1992 में मंडल कमीशन के खिलाफ सड़कों पर क्यों आ गया था? क्यों पिछड़ी जातियों के आरक्षण के खिलाफ हिंदू छात्रों से आत्मदाह कराया जा रहा था?
मोदी का सफेद झूठ
नरेंद्र मोदी ने अपने लेख में इतिहास की एक घटना को भी विकृत किया है. वे कहते हैं, ‘‘सामाजिक क्रांति के एक प्रेरणापुरुष वीर मेघमाया भी थे. वीर मेघमाया  के व्यक्तित्व से सारी राज्यव्यवस्था प्रभावित हुई थी. वीर मेघमाया ने समाज के कल्याण के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी. उन्होंने राजसत्ता से मांग की, हमें तुलसी और पीपल की पूजा करने का अवसर मिले. मेघमाया की इस छोटी सी मांग में एक लंबे युग की दिशा थी, दर्शन था. जो विचार अंबेडकर को 19वीं सदी में सूझा, वही विचार वर्षों पूर्व मेघमाया ने सुझाया था कि मेरा समाज इस सांस्कृतिक प्रवाह से कहीं दूर न चला जाए.’’
वाह, नरेंद्र मोदी. सफेद झूठ बोलने में संघ परिवार और आप का कोई मुकाबला नहीं कर सकता. कब अंबेडकर ने मेघमाया की तरह तुलसी और पीपल की पूजा करने का अधिकार मांगा था? सच तो यह है कि न वीर मेघमाया ने तुलसी और पीपल की पूजा का अधिकार मांगा और न ही अंबेडकर ने. जिन वीर मेघमाया की बात नरेंद्र मोदी कर रहे हैं वे अछूत साधु थे, जो विक्रमी संवत 1100 में गुजरात में थे. ब्राह्मणों ने साजिश कर के उन की नरबलि दी थी. बलि से पहले उन्होंने राजा के सामने अछूतों के गले में हांडी और कमर में झाड़ू लटका कर चलने की प्रथा समाप्त करने की शर्त रखी थी, जिस की राजाज्ञा उसी दिन राजा ने जारी की थी. ‘आदिहिंदू’ आंदोलन के प्रवर्तक स्वामी अछूतानंद ने इस घटना पर 1926 में ‘मायानंद बलिदान’ नाम से नाटक लिखा था.
अवसरवादी सियासत
हाल ही में भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता चुने जाने के बाद डा. विजय सोनकर शास्त्री, डा. कमलेश वर्मा को दिए साक्षात्कार में एक बात बड़े मार्के की कहते हैं, ‘‘दलित राजनीति का आरंभ तो दलित आंदोलन से होता है किंतु सत्ता प्राप्ति के साथ ही दलित राजनीति का अंत हो जाता है. दक्षिण भारत के या उत्तर भारत के राजनेताओं का क्रियाकलाप, अवसरवादिता के अलावा कुछ नहीं है.’’
लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि यदि भाजपा से दलित जुड़ते हैं तो दलित राजनीति का उत्थान किस दिशा में होगा? जब उन से पूछा गया कि हिंदुत्व और दलित राजनीति का उत्थान किस दिशा में होगा? जब उन से पूछा गया कि हिंदुत्व और दलित राजनीति के बीच विरोध की स्थिति देखी गई है, भाजपा के भीतर आप कैसे संतुलन बनाएंगे? तो उन्होंने कहा, ‘‘शिक्षा की कमी के कारण दलितों को गुमराह किया गया. अब प्रायोजित भ्रम टूट रहे हैं. अंबेडकर ने 1935 (सन गलत है) में मनुस्मृति को जलाया था, पर 1948 में उन्होंने अपनी किताब ‘द अनटचैबल्स’ में मनु को क्लीन चिट दे दी थी. उन्होंने इसी किताब में लिखा है कि मनुकाल में अस्पृश्यता नहीं थी, यहां तक कि शूद्र और अंत्यज भी भारत में कभी अस्पृश्य नहीं थे. वे कहते हैं कि हिंदू संस्कृति में स्थायी अस्पृश्यता का एक भी उदाहरण नहीं प्राप्त होता है.’’
विजय सोनकर शास्त्री की यह लीपापोती किसी काम आने वाली नहीं है, क्योंकि मनुस्मृति में अस्पृश्यता और शूद्रों के प्रति जघन्य भेदभाव के कानून मौजूद हैं. अगर उन्होंने अंबेडकर की
‘द अनटचैबल्स’ की प्रस्तावना ही पढ़ ली होती तो वे खुद भ्रम के शिकार नहीं होते.
भाजपा के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का यही असली एजेंडा है. वह दलितों समेत सारे हिंदुओं को मुसलिम और ईसाई विरोधी बनाना चाहती है. वह अतीत के जघन्य दुराचारों को भुला देना चाहती है. यह इतिहास की धारा को उलटने का आपराधिक कृत्य है. क्या भाजपा वाले इस बात को नहीं जानते कि अंगरेज और मुसलिम सत्ता में नहीं होते तो दलितों को इंसानी हक और सम्मान नहीं मिल पाते?
ऐसा नहीं है कि सोनकर और संघ परिवार के नीतिनिर्माता और बौद्धिक आचार्य इस बात को न जानते हों, वे जानते हैं. वे मुसलिम और अंगरेज ईसाई शासकों के विरोधी ही इसीलिए हैं कि वे यह जानते हैं कि उन की वजह से ही दलित वर्गों में जागरूकता आई है, जिस के कारण उन के सनातन धर्म का सारा तानाबाना बिखरा है. महावीर, बुद्ध, शक और हूणों से तो ब्राह्मणों ने अपनी धार्मिक व्यवस्था को बचा लिया था पर इसलाम और ईसाइयत को बचाने में काम न आई. यहां तक कि दयानंद और विवेकानंद के प्रयास भी धरे के धरे रह गए. ‘दलित आंदोलन पत्रिका’ के सहारे संघ का एजेंडा भी सफल होने वाला नहीं है, वे चाहे इतिहास को कितना ही तोडे़ंमरोड़ें या लीपापोती करें.

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