एक युग में हिंदू समाज के ब्राह्मण, नेता और समाज व धर्म के ठेकेदार बाल विवाह का प्रचारप्रसार करते थे. ऐसे में मूढ़मति लोग अपनी छोटी मासूम बेटियों का विवाह 50-60 साल के बूढ़ों से भी कर देते थे.

बाल विवाह की कुप्रथा के कारण समाज में युवा विधवाओं की संख्या बढ़ने लगी. कई सती प्रथा की शिकार होने लगीं. ‘विधवा’ का ठप्पा लगने के बाद युवतियों को सफेद कपड़े पहनने, जमीन पर सोने, एक वक्त खाने और मुंडन कराने जैसे नियम मानने पड़ते. शादी के अवसरों पर उन्हें आमंत्रित नहीं किया जाता. कुल मिला कर महिलाओं की स्थिति बड़ी दयनीय थी. ऐसे में समाज में महिलाओं को सम्मानजनक स्थान दिलाने, उन के अधिकारों की बात उठाने और उन्हें बराबरी का दरजा दिलाने के लिए राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, स्वामी विवेकानंद, शरतचंद्र चटर्जी और रवींद्रनाथ टैगोर जैसे समाज सुधारक आगे आए.

ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने समाज की युवा विधवाओं और परित्यक्ताओं को अच्छे तरीके से जीने का हक दिलाने, नारी को सम्मान दिलाने के लिए 987 लोगों द्वारा हस्ताक्षरित एक प्रस्ताव भारत की लैजिस्लेटिव कौंसिल को भेजा. प्रस्ताव में हिंदू विवाह अधिनियम में उपयुक्त परिवर्तन का निवेदन किया गया. काउंसिल के वरिष्ठ सदस्य सर जेम्स कोलविले ने इस बिल का समर्थन किया. आधुनिक भारत में नारी सशक्तीकरण की शुरुआत यहां से ही हुई. पूरे देश में इस बिल के पक्षविपक्ष में हजारों प्रस्ताव आए, लेकिन अंत में 26 जुलाई, 1856 को विधवाओं द्वारा पुनर्विवाह का रास्ता खोलने वाला ‘धारा एक्सवी 1856’ कानून पास हो गया. ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने 10 वर्ष की आयु में विधवा हुई बर्दवान की कालीमती देवी और पंडित श्रीशचंद्र विद्यारत्न का विवाह कर कानून को व्यावहारिक जामा पहना दिया. विद्यासागर ने खुद अपने बेटे का विवाह भी एक विधवा से ही करवाया.

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