हर उस काम, जिस में सरकार और उस की एजेंसियों को लोगों से पैसा झटकने की गुंजाइश रहती है, में सरकार टांग फंसाने से चूकती नहीं जिस का खमियाजा उन आम लोगों को भुगतना पड़ता है जिन्होंने कोई जुर्म नहीं किया होता, न टैक्स चोरी की होती है. कानून व्यवस्था और सुरक्षा के नाम पर जिन मसलों को ले कर सरकार आम लोगों की जिंदगी दुशवार करने से चूक नहीं रही, किराएदारी उन में से एक है. बढ़ते शहरीकरण ने किराएदारों की संख्या बढ़ाई है. हैरत की बात यह है कि अब किराएदार और मकानमालिकों के बीच मुकदमों व विवादों की तादाद पहले के मुकाबले कम हो चली है. असल में अब पहले की तरह किराए का भवन, दुकान या मकान हड़पना आसान नहीं रहा. भवनमालिक सजग हैं और किराएदारों को भी समझ आने लगा है कि बेवजह की कानूनी कवायदों और पुलिस वालों के झंझट में फंसने से बेहतर है कि भवन बदल लिया जाए और विवाद से जितना हो सके, बचा जाए.

आजकल किराए के मकानों में रहने वाले अधिकतर लोग भी पैसे वाले हो चले हैं और किराया वक्त पर चुकाते हैं क्योंकि उन की मंशा सुकून से रहने की होती है, नीयत खराब करने की नहीं. एक और बदलाव यह आया है कि अधिकतर किराएदार घरगृहस्थी वाले कम, छात्र और नौकरीपेशा ज्यादा हैं जिन्हें शहरों में 5-7 साल के लिए मकान चाहिए होता है. इस के बाद वे खुद का मकान, जो उन का सपना होता है, बना या खरीद लेते हैं और ऐसा न कर पाए तो हर 2 साल में ठिकाना बदल लेते हैं. किराएदारी अब पहले की तरह जानपहचान या रिश्तों पर आधारित न हो कर शुद्ध व्यावसायिक हो चली है. पहले की तरह मौखिक करार शायद ही कोई करता हो. अब 11 महीने का अनुबंध चलन में है जिस से दोनों पक्ष सहमत होते हैं और अनुबंध समाप्ति पर कोई परेशानी एकदूसरे को न हो तो अनुबंध बढ़ा लेते हैं. कोई दिक्कत पेश आए तो किराएदार खुद मकान छोड़ दूसरा ढूंढ़ लेता है. वजह, अब किराए के मकानों, भवनों या दुकानों का पहले की तरह टोटा नहीं है. ज्यादातर लोग अब मकानों, दुकानों में निवेश अतिरिक्त आमदनी के लिए कर रहे हैं क्योंकि इस से एक स्थायी संपत्ति भी बनती है और दूसरे किसी निवेश के मुकाबले इस में ज्यादा पैसा मिलता है. देश की औद्योगिक राजधानी मुंबई में जान कर हैरत होती है कि 2 कमरों के एक फ्लैट का किराया औसतन 30 हजार रुपए होता है और मकान हासिल करने के लिए इस का चारगुना किराए के लिए  डिपौजिट की शक्ल में जमा कराना पड़ता है. दूसरे शहर भी इस नए चलन से अछूते नहीं हैं. शहरों में बढ़ती भीड़ ने भवनमालिकों को आर्थिक राहत दी है लेकिन अब सभी जगह दिक्कतें सरकारी विभागों की तरफ से खड़ी की जा रही हैं जिस का खमियाजा ज्यादातर मकानमालिकों को भुगतना पड़ रहा है.

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