शास्त्रीय संगीत में शुमार ठुमरी ऐसा छोटा मधुर गीत होता है जिस के गायन में पूरी भावनाएं आनी जरूरी हैं. इस में भाव और शब्द के लिए अलगअलग राग अलापने पड़ते हैं. इसे किसी भी राग रागिनी में गाया जाए, इस का गायन अन्य रागों के गायन से अलग होता है. इसे केवल रागों की तरह नहीं गाया जा सकता है. पद्मश्री व पद्मभूषण से सम्मानित 86 वर्षीया गिरिजा देवी का कहना है कि ठुमरी को उस का उचित हिस्सा नहीं मिला है. उन्होंने कहा कि शास्त्रीय संगीत का हिस्सा ठुमरी की खयाल गायकी और रागरागिनी से तुलना की जाए तो ठुमरी को बहुत कम हिस्सा मिला है. ठुमरी की गायन शैली को बढ़ावा देने के लिए साहित्य परिषद की प्रशंसा करते हुए सुप्रसिद्ध गायिका गिरिजा देवी ने कहा कि ठुमरी को जो बढ़ावा दिया जा रहा है, उस से उन्हें बहुत प्रसन्नता हो रही है.

साहित्य कला परिषद द्वारा दिल्ली में आयोजित ‘ठुमरी उत्सव’ के दौरान गिरिजा देवी ने अपनी 2 शिष्याओं के साथ ठुमरी, दादरा गाती हुई आवाज के साथसाथ हाथों के उतारचढ़ाव और चेहरे पर मुसकराहटभरी भावभंगिमाओं से ‘हम से नजरिया काहे फेरे हो बालम, क्या मुझ से भूल हुई...’ के अलावा ‘श्याम अब तक न आए...’ और ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए...’ गा कर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया. ठुमरी के प्रति अपने अगाध प्रेम को दर्शाते हुए गिरिजा देवी ने कहा, ‘‘मैं ने दिल्ली में देखा कि मेरे छोटे भाईबहनों, बेटेबेटियों ने ठुमरी का गायन बहुत ही अच्छे ढंग से किया. मुझे अच्छा लगा कि सभी ने बढि़या गाया है.’’ गिरिजा देवी ने ठुमरी की शुरुआत करने से पूर्व शब्दों को स्पष्ट करते हुए समझाया भी था कि इन बोलों के जरिए क्या चित्रित किया जा रहा है. उन्होंने कहा, ‘‘ग न के शब्द हैं- हम से नजरिया काहे फेरे हो बालम, क्या मुझ से भूल हुई...’’ इस से संगीतप्रेमी उन के गायन का भरपूर लुत्फ उठा सके. वाराणसी में 8 मई, 1929 को जन्मी पुरबंग गायिकी की महान गायिका गिरिजा देवी ने 5 वर्ष की उम्र में पंडित सरजू प्रसाद मिश्रा से संगीत सीखना शुरू किया और उन के बाद वह पंडित श्रीचंद मिश्रा की शिष्या रहीं. उन्होंने उसी परिवार के अपने साथ तबले पर संगत कर रहे अभिषेक मिश्रा की तारीफ करते हुए कहा, ‘‘अभिषेक अपने परिवार की छठी पीढ़ी के सदस्य हैं जो मंच पर मेरे साथ संगत कर रहे हैं.’’ ठुमरी उत्सव में गिरिजा देवी के अलावा उस्ताद गुलाम सादिक खान ने अपने बेटे और पोते के साथ मिल कर ठुमरी का रंग जमाया.

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