15 सालों से सिनेमा, थिएटर और टैलीविजन पर अभिनय, निर्देशन व लेखन करने के तौर पर अपनी खास पहचान बना चुके सौरभ शुक्ला ‘सत्या’ फिल्म के अपने यादगार किरदार कल्लू मामा के बारे में बताते हैं कि फिल्म के निर्देशक रामगोपाल वर्मा ने उन्हें फिल्म की कहानी लिखने को कहा तो पहले उन्होंने इनकार कर दिया. बाद में जब रामगोपाल वर्मा ने उन्हें फिल्म में बढि़या रोल देने की बात कही तो वे कहानी लिखने के लिए तैयार हो गए और आज के कामयाब डायरैक्टर अनुराग कश्यप के साथ मिल कर सत्या की कहानी लिख डाली.

‘बैंडिट क्वीन’, ‘सत्या’, ‘नायक’, ‘स्लमडौग मिलेनियर’, ‘बर्फी’, ‘मोहब्बतें’, ‘बादशाह’, ‘ताल’, ‘लगे रहो मुन्ना भाई’, ‘ये साली जिंदगी’, ‘मैं तेरा हीरो’, ‘फटा पोस्टर निकला हीरो’, ‘जौली एलएलबी’ और ‘पीके’ जैसी कई फिल्मों के जरिए अपनी ऐक्टिंग का जलवा दिखा चुके सौरभ कहते हैं, ‘‘किसी भी प्रोफैशन में संघर्ष कभी भी खत्म नहीं होता है. पहले कामयाबी पाने के लिए स्ट्रगल करना पड़ता है, उस के बाद शिखर पर बने रहने के लिए ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है. ‘सत्या’ फिल्म के किरदार कल्लू मामा से ले कर ‘पीके’ फिल्म के तपस्वी महाराज तक का सफर तय करने के बाद भी उन का स्ट्रगल जारी है. लगातार स्ट्रगल करना ही कामयाबी दिलाता है और उस कामयाबी को लंबे समय तक कायम भी रखता है. अमिताभ बच्चन जैसे कलाकार भी आज तक स्ट्रगल कर रहे हैं, इसलिए वे आज भी कामयाब हैं.’’

उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में पैदा हुए 52 साल के सौरभ कहते हैं कि उन के परिवार में पढ़ाईलिखाई का काफी अच्छा माहौल था और हर कोई आसानी से एमए पास कर लेता था. उन पर एमए करने का काफी प्रैशर था, लेकिन उन्होंने पिता से इजाजत ले कर थिएटर का रास्ता चुन लिया. ‘व्यू फ्रौम द ब्रिज’, ‘घासीराम कोतवाल’ और ‘लुक बैक इन एंगर’ नाटकों ने उन की जिंदगी की दिशा और दशा बदल दी. उस के बाद टैलीविजन और सिनेमा में बहुत औफर मिलने लगे. टैलीविजन सीरियल ‘तहकीकात’ की कामयाबी ने सौरभ के लिए हिंदी फिल्मों के दरवाजे खोल दिए और पहली बार शेखर कपूर की फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ में उन्हें अभिनय करने का मौका मिला. सौरभ बताते हैं कि सत्या फिल्म और उस फिल्म में उन के किरदार ‘कल्लू मामा’ को कामयाबी मिलने के बाद भी महीनों तक उन्हें काम नहीं मिला था. हताशा में उन्होंने मुंबई छोड़ने का मन बना लिया था. कुछेक छोटेमोटे रोल मिले पर वे उन्हें पसंद नहीं आए, लेकिन अच्छे रोल की खोज में वे भटकते रहे. फिल्म ‘जौली एलएलबी’ और ‘बर्फी’ ने उन्हें फिल्म इंडस्ट्री में फिर से जमने का मौका दिया. हिंदी फिल्मों में कौमेडी के गिरते स्तर के बारे में सौरभ शुक्ला कहते हैं कि कौमेडी का मतलब भौंडापन नहीं होता है. हर इंसान के दिल को जो किरदार या डायलौग गुदगुदाए वही असली कौमेडी है. अपनी आने वाली फिल्म ‘फ्रौड सैंया’ के बारे में सौरभ बताते हैं कि उस में उन्होंने एक ठग का बड़ा ही दिलचस्प किरदार निभाया है. इस के अलावा ‘जौली एलएलबी-2’ और अनुराग बसु की ‘जग्गा जासूस’ से उन्हें काफी उम्मीदें हैं. सौरभ शुक्ला बतौर निर्देशक भी कई गुणवत्तापरक फिल्मों का निर्देशन कर चुके हैं. इसीलिए जब भी देश के किसी कोने में खासकर राजधानी में रंगमंचीय गतिविधि में शामिल होने का न्योता मिलता है, सौरभ कभी इनकार नहीं करते. उम्मीद है सौरभ आगे भी अपने अभिनय से दर्शकों को लुभाते रहेंगे.

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