‘डिबेट’ वह मौका होता है, जिसमें उम्मीदवार तमाम मुद्दों पर अपनी बात रखते हैं, मॉडरेटर्स इसे संचालित करते हैं, समय-सीमा का पूरा ध्यान रखा जाता है, खुद को साबित करने के लिए वाकपटुता, तर्क, हाजिर-जवाबी, आरोपों व प्रत्यारोपों का सहारा लिया जाता है और फिर अंत में ‘विजेता’ की घोषणा की जाती है. मगर जब एक उम्मीदवार गंभीर हो और दूसरा सतही, तो ‘डिबेट’ अपनी गरिमा खो देती है.

हाल ही में डोनाल्ड ट्रंप और हिलेरी क्लिंटन के बीच हुई बहस किसी तमाशा से कम न थी. मंच पर आक्रामक तरीके से अकॉर्डियन (वाद्य यंत्र) बजाने की शैली में अपने हाथों को घुमाते हुए ट्रंप ने रोजगार, आतंकवाद, नाफ्टा (उत्तर अमेरिका मुक्त व्यापार समझौता), चीन-नीति जैसे मुद्दों पर डेमोक्रेटिक पार्टी को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास किया. मगर ‘डिबेट’ के परवान चढ़ते ही वह अपने विपक्षी उम्मीदवार के सामने बगलें झांकते दिखे, जो उनसे अपेक्षाकृत अधिक संतुलित और प्राइमरी में अब तक ट्रंप के सामने आए तमाम रिपब्लिकनों से अधिक मजबूत थीं.

मॉडरेटर की भूमिका निभा रहे एनबीसी न्यूज के लेस्टर हॉल्ट ने जब ‘समृद्धि’, ‘अमेरिका की दिशा’ और ‘सुरक्षा’ जैसे पूर्व-निर्धारित मुद्दों पर अपनी बात रखने को कहा, तो ट्रंप ज्यादा उत्तेजित दिखे. उन्होंने आईएस, बेरोजगारी, अश्वेत अमेरिकियों की दुर्दशा, गैर-कानूनी प्रवासियों से पैदा होती मुश्किलों आदि के लिए हिलेरी क्लिंटन के बहाने डेमोक्रेटिक पार्टी को जिम्मेदार ठहराया. मगर उनका झूठ ‘डिबेट’ में भी नहीं छिप सका.

हालांकि हिलेरी भी कुछ मामलों में अपेक्षाओं पर खरी उतरीं, तो कुछ में उम्मीद से बेहतर उनका प्रदर्शन रहा, जबकि कुछ मुद्दों पर वह निराश करती दिखीं. उनमें चपलता की कमी थी. उनके लफ्ज और सख्त होने चाहिए थे. व्यंग्य का पुट भी गायब था. वैसे, बढ़त हासिल करने के लिए उन्होंने संतुलन साधने की कोशिश की. ऐसे में, यही कहा जाएगा कि रिपब्लिकन ने एक बदतरीन उम्मीदवार चुना है, जिन्होंने बहस को निराशाजनक आयाम दिया. दुखद यह भी है कि राष्ट्रपति और देश का भविष्य इस कदर तय हो रहा है, जिनमें तर्क झूठ की बुनियाद पर गढ़े गए हैं.

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