अमेरिका के विदेश मंत्री जॉन केरी को ‘मैन ऑन मिशन’ क्यों न कहा जाए? केरी ने जिस तरह विश्व के अत्यंत मुश्किल समझे जाने वाले मामलों को बार-बार अपना एजेंडा बनाया, वह दुर्लभ है. केरी कई बार विलक्षण, तो कई बार दुस्साहसिक होने की हद तक ऐसे मामलों की जड़ में जाते दिखाई दिए.

इजराइल-फलस्तीन शांति समझौते में वह अपने पूर्ववर्ती जैसे कारगर भले ही न दिखे हों, लेकिन केरी ही थे, जिनके कारण 2015 में ईरान के साथ परमाणु समझौता और पिछले दिसंबर में पेरिस में जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक समझौता जमीन पर उतर पाया. रूस के साथ बातचीत कर पिछले हफ्ते सीरिया में युद्धविराम को अंजाम देकर तो जैसे केरी ने बड़ी जीत हासिल कर ली. सीरिया के संकट ने कितने बेकसूरों की जानें लीं, कितनों को बेघर किया या भुखमरी का शिकार बनाया, यह बताने की जरूरत नहीं. लेकिन क्या इसे वाकई केरी की जीत मान लिया जाए?

असल जीत तो तब होगी, जब युद्धविराम टिकेगा और यह रूस के सकारात्मक रुख पर निर्भर करेगा. रूस के अब तक के रुख को देखते हुए तो इस पर संदेह होता है. ओबामा प्रशासन भी इस पर एक राय नहीं है. केरी से असहमत धड़ा मानता है कि वह बार-बार ऐसे काम किसी जिद की तरह हाथ में लेते हैं, जिनके नतीजे अंतत: मुकम्मल नहीं कहे जा सकते, लेकिन यह भी सच है कि कूटनीतिक क्षेत्र में केरी के प्रयासों की सराहना हुई है. खासकर मुश्किल की जड़ को समझकर उसका समाधान देने के इरादे की.

केरी सीरिया के मामले में राष्ट्रपति ओबामा को कुछ मामलों में भले ही राजी न कर पाए हों, लेकिन यह तो सब मानते हैं कि सीरिया में जो कुछ हुआ, उसमें असल भूमिका केरी की ही थी. शायद यही कारण है कि तमाम आलोचनाओं के बीच केरी मजबूत तो दिखते हैं, हालांकि पिछले अनुभवों के कारण रूस के प्रति पूरी तरह आश्वस्त भी नहीं हो पाते. लेकिन केरी की टिप्पणी कि ‘शायद यह सीरिया को बचा पाने की अंतिम कोशिश हो’ उनके अंदर की पीड़ा का बयान करती है. अब ऐसे में तो केरी की तारीफ होनी ही चाहिए.

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