चीन ने दावा किया है कि 1980 के दशक में उस के कम्युनिस्ट तानाशाहों ने जो ‘1 बच्चा’ नीति लागू की थी, आर्थिक चमत्कार उसी का परिणाम है. यह बात चाहे पश्चिम के मानव अधिकार सुधारकों को न पचे पर यह सत्य से दूर नहीं है. चीन ने बच्चों के  कम होने पर आबादी का दबाव ही कम नहीं सहा, उस की जनता को काम करने का ज्यादा समय भी मिला.

बच्चे मां का ही नहीं, पिता का भी पूरा ध्यान मांगते हैं. कम बच्चे हों तो मातापिता 5-7 साल बाद बच्चों की जिम्मेदारी से लगभग मुक्त हो जाते हैं और अपने काम पर समय व शक्ति लगा सकते हैं, चाहे काम खेतों में हो या कारखानों या फिर दफ्तरों में. कम बच्चे होने पर पारिवारिक बचत बढ़ जाती है जो देश की पूंजी बनती है.

हमारे यहां ‘बच्चे बस 2 या 3’ या फिर ‘हम 2 हमारे 2’ के नारे आपातकाल के भूकंप में बह गए क्योंकि जनता ने बैडरूम में सरकार का दखल स्वीकार नहीं किया. फिर भी हमारे यहां उस नीति के परिणाम जब दिखने लगे तो परिवारों ने अपनेआप बच्चे सीमित करने शुरू कर दिए.

शादी हो और 100 बच्चे हों का धर्म का नारा परिवारों को सुख देने के लिए कभी नहीं रहा. उस का ध्येय तो सिर्फ यह है कि धर्म का पेट भरने वालों की कमी न हो.

इसलाम और ईसाई धर्म बच्चों की कमी पर नाराज होते हैं क्योंकि उन्हें ऐसे युवाओं की जरूरत रहती है जिन को घर में न खाना मिले न इज्जत और वे धर्म के नाम पर कुरबानी देने को तैयार रहें. इसीलिए जितने कट्टर धर्म हैं वे परिवार नियोजन और गर्भपात के विरोधी हैं. मजेदार बात है कि ये समाज गरीबों, बीमारों, निकम्मों, अपराधियों और नशेडि़यों से भरे हैं.

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