अत्यंत दुख के साथ अपने सभी चटोरे और चालू मित्रों को रुंधे गले से सूचित कर रहा हूं कि मेरे प्रिय कंप्यूटर का आकस्मिक निधन हो गया है. मित्रो, सच कहूं तो कंप्यूटर मेरा सबकुछ था. वह मेरा बाप था, वह मेरी मां थी. मेरा भाईबंधु सबकुछ मेरा कंप्यूटर ही था. जबजब मैं उस के साथ होता था तो मुझे किसी की कोई कमी नहीं खलती थी. यहां तक कि मेरी प्रेमिका भी मेरा यह कंप्यूटर ही था और पत्नी भी. इस कंप्यूटर के बीमार होने पर मैं ने इसे कहांकहां नहीं दिखाया. किसेकिसे नहीं दिखाया. जिस ने जहां कहा, इसे वहां ले गया. यहां तक कि क्रांतिकारी लेखक होने के बावजूद झाड़फूंक करने वालों पर भी विश्वास किया. मरता क्या न करता. हूं तो मैं इसी परिवेश का क्रांतिकारी लेखक न. ठीक वैसा ही जीव जैसे कोई देसी कम्यूनिस्ट उम्रभर हर मंच से परंपराओं, धर्म का विरोध करतेकरते टूट गया हो पर जब उस की अपनी बेटी का विवाह हो तो वह चोरीचोरी से अपने घर की खिड़कियां, दरवाजे बंद कर भीतर बेटी के विवाह का मंडप सजा वहां पंडितजी से मंत्रोच्चार करवा रहा हो.

अब बंदा यहीं आ कर तो हार जाता है. मौत के आगे किस का वश चलता है भाईसाहब. पर यहीं आ कर मन मान जाता है कि जाने वाले को बचाने के लिए जितना मुझ से हो सकता था, उतना तो मैं ने किया. बस, इसी बात की प्रसन्नता से अपने मन के दुख को कम किए हुए हूं. अपने दिल पर हाथ रख कर पूरी ईमानदारी से अपने पूरे होशोहवास में कह रहा हूं कि मैं ने 10 सालों से बीमार पत्नी को कभी सरकारी अस्पताल तो छोडि़ए, महल्ले के ही वैद्य तक को दिखाने की कोशिश नहीं की. आप मुझे लेखक कम, गधा अधिक सोच रहे होंगे और मुझ से पूछना चाह रहे होंगे कि मैं ने आखिर ऐसा क्यों किया? दरअसल वह इसलिए कि पत्नी का विवाह के बाद से बस एक काम होता है और वह यह कि उस का बीमार रहना. सुबह टांगों में दर्द तो दिन में सिर में दर्द. शाम ढली नहीं कि उस ने कमर पकड़ी नहीं.

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