सुबह की मीठी नींद के बीच किसी की कर्कश आवाज ने सरोज बाबू को झकझोर दिया. ‘‘कब तक सोते रहोगे? वो देखो, प्रकाश बाबू सुबह से झाड़ू लगाने की प्रैक्टिस कर रहे हैं.’’

हड़बड़ा कर सरोज बाबू उठ बैठे, ‘‘अरे, तुम ने जगाया क्यों नहीं? कितनी देर से लगा रहे हैं वो झाड़ू?’’ एक गुलाटी मार कर पलंग से उतरे और सीधे बाथरूम की तरफ भागे.

‘‘तुम ने तो अलार्म लगाया था न,’’ श्रीमतीजी बोलीं.

‘‘कमबख्त, पता नहीं कब बजा और कब बंद हो गया या मैं ने ही बंद कर दिया होगा नींद में,’’ बड़बड़ाते हुए बाथरूम से निकले. श्रीमतीजी चाय का पानी चढ़ा चुकी थीं तब तक. जल्दी से चाय का प्याला हाथ में ले कर बोले,

‘‘झाड़ू कहां है?’’

‘‘वहीं है जहां रात को रख कर सोऐ थे, बगीचे में, और कहां जाएगी वहां से?’’

रात में ही सारी तैयारी कर के सोए थे सरोज बाबू. आज औफिस में सफाई दिवस मनाया जाने वाला था, औफिस में कई झाड़ुएं खरीदी गई थीं. सभी लोग बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने वाले थे, जिंदगी में कोई तो एक ऐसा दिन आया था जिस दिन बड़े साहब की डांट नहीं पड़ने वाली थी बल्कि लड्डू, नमकीन व समोसे के नाश्ते के साथ शाबाशी भी मिलने वाली थी.

क्या पता बड़े साहब खुश हो जाएं और उन्हें सफाई अभियान का हेड बना दें. ‘देखना, यदि मैं इस सफाई अभियान का हेड बन गया न, तो तुम्हारा घर झाड़ुओं से भर दूंगा,’ कल सरोज बाबू श्रीमतीजी से मजाक में हंस कर बोले थे.

वे भी हंस दी थीं, ‘क्या करूंगी इतनी सारी झाड़ुओं का मैं?’

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