वैसे तो जब से मैं ने अपने इस लिखारीभिखारी दोस्त को देखा है तब से परेशान ही देखा है. उस ने पैदा होने के बाद कलम चलाने का बाप से हट कर धंधा चूज किया तो मैं ने बाप का ही मूंगफली की रेहड़ी लगाने का. उस की इसी कभी न सुधरने वाली गलती को देख कर मैं ने उसे फुल अपनापे से कई बार अनौपचारिक सलाह भी दी, ‘हे लिखारी दोस्त, बहुत हो ली साहित्यिक पत्रिका की मार्फत समाजसेवा के नाम पर यारदोस्तों से चंदे की ठगी. तू है कि किसी न किसी बहाने मक्खीचूस से मक्खीचूस दोस्तों को बहलाफुसला कर पत्रिका के सालभर के 12 अंकों के हिसाब से चंदा मार ही लेता है और अपनी पत्रिका के अंक लेदे कर 2 ही निकालता है, संयुक्तांक की चाल चल कर. अब ऐसा कर कि पत्रिका निकालनी बंद कर और इस से पहले कि वीपी चैक करने की मशीन के सारे आंकड़े पार कर जाएं, अपना बीपी चैक कर, उसे नौर्मल लाने की दवा खा. दवा के पैसे मेरी ओर से. इस वक्त भाभी को तेरी सब से अधिक जरूरत है, पत्रिका को नहीं.’

पर जो मान जाए वह पत्रिका का संपादक काहे का. सच कहूं, मैं ने अपनी जिंदगी में 2 ही हठी जीव देखे, एक मेरी पत्नी और दूसरा यह विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका का संपादक. अरे, उस में थोड़ी नमकमिर्च डाल फिर देख क्यों न बिके माल. पर नहीं, छपेगा तो विशुद्ध ही. अरे, लोगों को तो आज शुद्ध भी नहीं पच रहा. इधर, गलती से शुद्धवुद्ध सा कुछ खा लिया तो 2 घंटे बाद अस्पताल के बैड पर. ‘यार, अब के मेरा एक काम कर दे. बस, आगे से तेरा सहारा नहीं लूंगा,’ कह संपादक दोस्त ने कहीं से बैरंग लिफाफे में आए बेढंगदार व्यंग्य को घूरना शुरू किया.

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